भारत के लिए ग्रीन हाइड्रोजन और वित्तीय चुनौतियाँ

भारत ने 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन (Net-Zero Emissions) प्राप्त करने का लक्ष्य रखा है। इस दिशा में ग्रीन हाइड्रोजन एक महत्वपूर्ण विकल्प है, खासकर उन औद्योगिक क्षेत्रों के लिए जिन्हें सीधे नवीकरणीय ऊर्जा से डीकार्बोनाइज़ करना कठिन है। सरकार ने 2030 तक प्रतिवर्ष 5 मिलियन मीट्रिक टन (MMT) ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन का महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किया है। यह भारत की इस उभरते क्षेत्र में वैश्विक नेतृत्व स्थापित करने की महत्वाकांक्षा को दर्शाता है।

लेकिन समस्या यह है कि ग्रीन हाइड्रोजन की वित्तीय व्यवहार्यता (Financial Viability) अभी भी बहुत कमजोर है।

मौजूदा आर्थिक असमानता

ब्लूमबर्गNEF की हालिया रिपोर्ट बताती है कि भारत 2030 तक अपने लक्ष्य का केवल 10% ही हासिल कर पाएगा।

  • ग्रीन हाइड्रोजन की लागत: $5.30 – $6.70 प्रति किलो
  • ग्रे/ब्लू हाइड्रोजन की लागत: $1.9 – $2.4 प्रति किलो

यह विशाल लागत अंतर न केवल घरेलू खपत को कमजोर करता है बल्कि निजी निवेशकों की रुचि भी घटा देता है। इस स्थिति को मार्केट डेडलॉक” कहा जा सकता है – उत्पादन बढ़ेगा तो लागत घटेगी, लेकिन जब तक लागत कम नहीं होगी तब तक उत्पादन स्केल नहीं हो पाएगा।

प्रमुख बाधाएँ

ग्रीन हाइड्रोजन की लागत मुख्यतः दो कारकों पर निर्भर है:

  • बिजली का लेवलाइज्ड कॉस्ट (LCOE)
  • इलेक्ट्रोलाइज़र की कीमत

दोनों पर पूंजी की लागत (Cost of Capital) का सीधा असर पड़ता है।

  • भारत जैसे उभरते बाज़ारों में निवेशक जोखिम ज़्यादा मानते हैं, जिससे उधार की लागत (Borrowing Cost) और WACC (Weighted Average Cost of Capital) ऊँचा हो जाता है।
  • अध्ययनों से पता चलता है कि अगर WACC 10% से 20% तक बढ़े, तो ग्रीन हाइड्रोजन की लागत 73% तक बढ़ सकती है
  • इसके अलावा इलेक्ट्रोलाइज़र की कीमत भी अभी बहुत अधिक है:
    • Alkaline: $500 – $1,400 प्रति kW
    • Proton Exchange Membrane (PEM): $1,100 – $1,800 प्रति kW

इससे वित्तीय व्यवहार्यता और चुनौतीपूर्ण हो जाती है।

वैश्विक परिदृश्य

दुनिया भर में ग्रीन हाइड्रोजन परियोजनाओं को लेकर भी यही समस्या है।

  • मई 2024 तक घोषित 1,572 बड़े पैमाने की परियोजनाओं (कुल मूल्य $370 बिलियन) में से केवल 27.6% ने ही अंतिम निवेश निर्णय (Final Investment Decision) तक पहुँचा।
  • इसका मतलब यह है कि बाधाएँ केवल तकनीकी नहीं बल्कि वित्तीय और बाज़ार संरचना से जुड़ी भी हैं।

समाधान और नीतिगत दिशा

भारत को निवेश सुरक्षित करने और लागत घटाने के लिए बहु-आयामी रणनीति अपनानी होगी।

(क) नीति सुधार

  • केवल उत्पादन प्रोत्साहन (Production Incentives) पर्याप्त नहीं है।
  • दीर्घकालिक हाइड्रोजन खरीद समझौते (Long-term Purchase Agreements)
  • आंशिक ऋण गारंटी (Partial Loan Guarantees)
  • Regulatory Sandboxes – जिससे नए बिज़नेस मॉडल पर तेज़ी से प्रयोग हो सके (जैसे भारत में फिनटेक क्षेत्र में हुआ)।

(ख) वित्तीय नवाचार

भारतीय बैंकों को पारंपरिक ऊर्जा परियोजनाओं वाली फाइनेंसिंग से आगे बढ़कर नए वित्तीय ढाँचे अपनाने होंगे:

  • Blended Finance और Green Bonds
  • Modular Project Financing – परियोजना को चरणबद्ध तरीके से बढ़ाना ताकि शुरुआती लागत कम रहे।
  • Anchor-plus Financing Model – जहाँ किसी बड़े औद्योगिक ग्राहक को आधार बनाकर शेष क्षमता को लचीले ढंग से फाइनेंस किया जाए।
  • Equipment Leasing – इलेक्ट्रोलाइज़र खरीदने की बजाय किराये पर लेना, जैसा सौर और पवन ऊर्जा क्षेत्र में हुआ।

(ग) अंतरराष्ट्रीय सहयोग

  • मानकीकृत प्रमाणन प्रणाली (Standardised Certification) विकसित करनी होगी (कार्बन इंटेंसिटी और हाइड्रोजन की उत्पत्ति को लेकर)।
  • Hydrogen Corridors बनाकर निर्यात बाज़ार को मज़बूत करना होगा।
  • उदाहरण: ऑस्ट्रेलिया-जापान का Hydrogen Energy Supply Chain Project।

भारत का भविष्य पथ

भारत के लिए शुरुआती औद्योगिक केंद्र (जैसे ओडिशा, महाराष्ट्र और गुजरात) पायलट हब बन सकते हैं।

  • यदि ये परियोजनाएँ सही बिज़नेस मॉडल दिखाती हैं, तो अन्य निवेशक भी आकर्षित होंगे।
  • उद्देश्य होना चाहिए: मुख्य उद्योगों को किफायती दर पर हाइड्रोजन उपलब्ध कराना

भारत के पास प्रचुर नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत हैं। यदि इन्हें सस्ती पूंजी और रणनीतिक निवेश के साथ जोड़ा जाए, तो भारत ग्रीन हाइड्रोजन में वैश्विक अग्रणी बन सकता है।

Source: The Hindu