समावेशी शिक्षा की दिशा में एक अहम कदम उठाते हुए, दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग (DEPwD) ने हाल ही में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग (NIOS) और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) के साथ एक त्रिपक्षीय समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किए हैं। इस समझौते का उद्देश्य है कि स्कूली पाठ्यक्रमों में दिव्यांगता की अवधारणा को प्रारंभिक स्तर से ही शामिल किया जाए, ताकि सभी बच्चे — दिव्यांग हों या सक्षम — दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 (RPwD Act) में निहित अधिकारों की समझ विकसित कर सकें।
समावेश पाठ्यपुस्तकों से शुरू होता है
इस पहल से यह स्पष्ट संदेश जाता है कि यदि हम इमारतों, सड़कों, कार्यस्थलों और सार्वजनिक स्थलों में समावेशन चाहते हैं, तो उसकी शुरुआत हमारी पाठ्यपुस्तकों से ही होनी चाहिए। यह केवल एक नियम पालन नहीं, बल्कि एक संस्कृतिक बदलाव है — जिसे पढ़ाया, समझाया और अपनाया जाना चाहिए। और सबसे ज्यादा ज़रूरत इस बदलाव की वास्तुकला, इंजीनियरिंग और शहरी विकास जैसे क्षेत्रों में है — जो हमारे चारों ओर की दुनिया को आकार देते हैं।
समावेशन: एक टिक मार्क नहीं, एक दृष्टिकोण
जहाँ एक ओर स्कूली स्तर पर समावेश को पाठ्यचर्या में लाया जा रहा है, वहीं भारत का भवन-निर्माण क्षेत्र अब भी इसे केवल “टिक करने योग्य बॉक्स” समझता है — न कि एक ऐसी मानसिकता, जिसे गहराई से अपनाने की आवश्यकता है।
दिल्ली का उदाहरण लें — एक ऐसा शहर, जहां दिव्यांगजनों को वास्तु डिज़ाइन के ज़रिये व्यवस्थित रूप से बाहर रखा गया है। 2016 में “एक्सेसिबल इंडिया कैंपेन” के अंतर्गत हुए ऑडिट में सामने आया:
- 30% सरकारी इमारतों में रैम्प नहीं थे
- 82% सार्वजनिक शौचालय दिव्यांगजन के लिए अनुपयुक्त थे
- 94% स्वास्थ्य सुविधाएं दिव्यांगजनों के अनुकूल नहीं थीं
ये केवल आंकड़े नहीं, बल्कि रोज़ाना अधिकारों से वंचित किए जाने का दस्तावेज़ हैं।
वास्तुशिल्प और इंजीनियरिंग शिक्षा में खाई
इन समस्याओं की जड़ यह है कि इमारतें डिज़ाइन करने वाले पेशेवरों को दिव्यांगता समावेशन की कोई औपचारिक शिक्षा ही नहीं मिलती। दिल्ली के Unified Building Bylaws (UBBL) को लागू करने वाले अधिकारियों तक को इसके तकनीकी पहलुओं की जानकारी नहीं होती।
जैसे कि:
- IIT दिल्ली के प्रतिष्ठित कंप्यूटर साइंस इंजीनियरिंग कार्यक्रम में समावेशी डिज़ाइन या एक्सेसिबिलिटी की कोई बुनियादी शिक्षा नहीं दी जाती।
- स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर, दिल्ली में एक्सेसिबिलिटी को अक्सर वैकल्पिक या विशेष क्षेत्र के रूप में पढ़ाया जाता है — न कि एक अनिवार्य डिज़ाइन सिद्धांत के रूप में।
अगर देश के शीर्ष तकनीकी संस्थानों के छात्र ही समावेश की शिक्षा नहीं पाते, तो व्यापक परिवर्तन की उम्मीद करना व्यर्थ है।
कानून है, पर क्रियान्वयन नहीं
भारत के पास कानूनों की कमी नहीं है:
- RPwD अधिनियम, 2016 की धारा 40 और 44 में एक्सेसिबल इंफ्रास्ट्रक्चर की बाध्यता स्पष्ट है।
- “Harmonised Guidelines, 2021” तकनीकी मानकों की विस्तृत व्याख्या करती हैं।
- UBBL, 2021 के अध्याय 11 में सार्वजिनक इमारतों के लिए एक्सेसिबल डिज़ाइन अनिवार्य किया गया है — जैसे रैम्प, टैक्टाइल फ्लोरिंग, संकेत चिह्न, आदि।
- दिल्ली मास्टर प्लान, 2041 भी समावेशी सार्वजनिक ढांचे की प्रतिबद्धता दर्शाता है।
यहां तक कि राजीव रतूरी बनाम भारत सरकार (2024) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक्सेसिबिलिटी मानकों को “वैकल्पिक” नहीं, अनिवार्य बनाना चाहिए।
फिर भी, असली समस्या कानून में नहीं, बल्कि उसे लागू करने की क्षमता में है।
शिक्षित नहीं, दंडित किया जा रहा है
UBBL और दिल्ली नगर निगम अधिनियम, 1957 जैसी व्यवस्थाओं में उल्लंघन के लिए जुर्माना और जेल की सजाएं तय हैं। RPwD अधिनियम की धारा 89 भी 10,000 से ₹5 लाख तक के दंड का प्रावधान करती है।
लेकिन समस्या यह है कि दंड देने की व्यवस्था तो है, पर रोकथाम, प्रशिक्षण, और ज़िम्मेदारी तय करने की व्यवस्था नहीं है।
इंजीनियरों, आर्किटेक्ट्स और ठेकेदारों को समावेशी डिज़ाइन की ट्रेनिंग नहीं मिलती। परिणामस्वरूप ऐसी इमारतें बनती हैं जो कानूनी बॉक्स तो टिक कर देती हैं, लेकिन वास्तविक ज़रूरतें पूरी नहीं करतीं।
न्यायालयों की चेतावनी
निपुण मल्होत्रा बनाम जीएनसीटीडी (2018) में दिल्ली हाईकोर्ट ने विशेष रूप से कहा कि अधिकारियों में संवेदनशीलता की कमी प्रशिक्षण की कमी से उत्पन्न होती है।
दक्षिण दिल्ली के बाजारों में एक्सेसिबिलिटी की शिकायत पर दिल्ली राज्य दिव्यांगजन आयुक्त ने आदेश दिया कि इंजीनियरों, आर्किटेक्ट्स, ठेकेदारों, और यहां तक कि राजमिस्त्रियों को भी संरचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
समावेशन: सज़ा से नहीं, शिक्षा से
इसलिए DEPwD, NCERT और NIOS का यह समझौता एक isolated प्रयास नहीं, बल्कि प्रणालीगत बदलाव का खाका होना चाहिए।
जैसे स्कूल पाठ्यक्रमों में समावेश को एक नागरिक मूल्य के रूप में शामिल किया जा रहा है, वैसे ही तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा में भी समावेश को अनिवार्य रूप से जोड़ा जाना चाहिए।
- AICTE, Council of Architecture और अन्य नियामक निकायों को एक्सेसिबिलिटी को कोर डिजाइन कौशल बनाना चाहिए।
- छात्रों को यह सिखाना होगा कि समावेशन कोई बाध्यता नहीं, बल्कि दया और समझ का विषय है।
- उन्हें इमारतें केवल दिखाने के लिए नहीं, बल्कि हर नागरिक के लिए उपयोगी बनाने की कला सिखानी होगी।
नियम बनाम पाठ्यपुस्तक
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तहत मई 2025 में DEPwD ने “Built Environment Accessibility Rules” का ड्राफ्ट जारी किया और जनता से सुझाव मांगे। लेकिन अगर शिक्षा प्रणाली में समानांतर सुधार नहीं हुआ, तो ये नियम भी कागज़ी बोझ बनकर रह जाएंगे।
इस चक्र को तोड़ने के लिए, ज़रूरत है कि नियम पुस्तिका (Rulebook) के साथ-साथ एक समावेशी पाठ्यपुस्तिका (Textbook) भी हो — जो एक्सेसिबिलिटी को कानून की ज़रूरत नहीं, बल्कि एक मूलभूत संवेदना के रूप में पढ़ाए।
अंचल भाटेजा विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की “डिसएबिलिटी, इन्क्लूज़न एंड एक्सेस टीम” में रिसर्च फेलो हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।
Source: The Hindu