भारत में आपातकाल लगाए जाने के पचास साल पूरे होने के अवसर पर, संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को जोड़ने का मुद्दा फिर से चर्चा में आ गया है। पहले आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने इस पर टिप्पणी की और फिर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि भारत के अलावा किसी अन्य देश के संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं किया गया है। उनके इस बयान के बाद यह बहस और तेज़ हो गई।
धनखड़ ने कहा, “प्रस्तावना संविधान का बीज है, यह संविधान की आत्मा है, लेकिन भारत में 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के ज़रिए इसे बदला गया था। इसमें समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्द जोड़े गए।” यह बात सही है कि 26 जनवरी 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ था, तो उसकी प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे।
42वां संविधान संशोधन और ‘लघु संविधान’
जिन्हें उपराष्ट्रपति ने उल्लेखित किया, वह 42वां संविधान संशोधन अधिनियम था, जिसके जरिए संविधान में केवल इन शब्दों को ही नहीं जोड़ा गया था, बल्कि यह संशोधन संविधान के 40 अनुच्छेदों, सातवीं अनुसूची में बदलाव, और 14 नए अनुच्छेदों के साथ एक व्यापक परिवर्तन था। इसे ‘लघु संविधान’ कहा जाता है, क्योंकि यह संविधान में अब तक का सबसे बड़ा और व्यापक संशोधन था।
भारत में 25 जून 1975 को आपातकाल लागू किया गया था, जो 21 महीनों तक चला और 21 मार्च 1977 को खत्म हुआ। इसी दौरान संविधान में यह बदलाव किया गया। सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता ज्ञानंत सिंह के अनुसार, यह संशोधन इतना व्यापक था कि इसने संविधान के लगभग हर हिस्से को प्रभावित किया। इसमें मौलिक अधिकार, संघीय संतुलन, और संविधान के मूल ढांचे को भी प्रभावित किया।
42वें संविधान संशोधन के प्रमुख प्रावधान
इस संशोधन अधिनियम के कुछ प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे:
- प्रस्तावना में बदलाव: ‘सोशलिस्ट’, ‘सेक्युलर’ और ‘इंटीग्रिटी’ शब्द जोड़े गए।
- मौलिक कर्तव्य: संविधान के अनुच्छेद 51-ए के तहत भारतीय नागरिकों के लिए दस मौलिक कर्तव्यों को जोड़ा गया, जैसे संविधान, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करना, सद्भाव और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना, सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा करना, और पर्यावरण की रक्षा करना।
- राज्य-केन्द्र संबंधों में बदलाव: सातवीं अनुसूची में बदलाव किया गया, जिसमें राज्य सूची के पांच विषयों को समवर्ती सूची में डाला गया, जिससे केंद्र की विधायी शक्ति राज्यों पर बढ़ी।
- संविधान संशोधन की प्रक्रिया: अनुच्छेद 368 के तहत संसद की शक्ति का विस्तार किया गया और इसे न्यायिक समीक्षा से मुक्त कर दिया गया।
- सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के अधिकार सीमित किए गए: जजों के रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाई गई और जजों के ट्रांसफर को बिना उनकी सहमति के मंजूरी दी गई।
- नीति निर्देशक सिद्धांतों को प्राथमिकता: राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता दी गई और संसद को किसी भी मौलिक अधिकार को प्रतिबंधित या निरस्त करने का अधिकार दिया गया।
- लोकसभा और राज्य विधानसभा का कार्यकाल बढ़ाया: लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को पांच साल से बढ़ाकर छह साल किया गया।
- अनुच्छेद 323ए और 323बी का समावेश: ट्राइब्यूनल्स का गठन किया गया।
- आपातकाल: 25 जून 1975 को संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की गई। यह आपातकाल युद्ध या विदेशी आक्रमण और आंतरिक अशांति के आधार पर लगाया गया था।
आंदोलन के बाद हुए संशोधन और बदलाव
साल 1977 में जनता पार्टी की सरकार आई, जिसमें मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और इसके बाद संविधान में आपातकाल के दौरान किए गए संशोधनों को पलटने के लिए नए संशोधन अधिनियम लाए गए।
- 43वां संशोधन: इस संशोधन के जरिए सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के अधिकार बहाल किए गए और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के खिलाफ कानून बनाने की संसद की शक्तियों को कम किया गया।
- 44वां संशोधन: 44वें संशोधन के ज़रिए, आंतरिक अशांति के आधार को बदलकर सशस्त्र विद्रोह किया गया और लोकसभा एवं विधानसभाओं के कार्यकाल को फिर से पांच साल कर दिया गया। 44वें संशोधन में यह भी सुनिश्चित किया गया कि आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित नहीं किया जा सकता।
संविधान में ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
इन दो शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ने के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा में कहा था, “हमारे संविधान और हमारे देश को बनाने वालों की मंशा थी कि भारतीय समाज धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी हो… अब हम बस इन्हें संविधान में शामिल कर रहे हैं क्योंकि ये शब्द यहां उल्लेख किए जाने के हक़दार हैं।”
हालांकि, इसके खिलाफ यह दलील दी जाती है कि ये शब्द मूल संविधान में नहीं थे। आरएसएस नेता दत्तात्रेय होसबाले ने कहा, “इन शब्दों को उस वक्त जोड़ा गया था जब आपातकाल था और मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे, संसद काम नहीं कर रही थी। इसलिए यह सवाल उठता है कि क्या ये शब्द प्रस्तावना में रह सकते हैं या नहीं।”
क्या इन शब्दों को हटाया जा सकता है?
यह सवाल उठता है कि यदि ये शब्द संविधान में जोड़े गए हैं, तो क्या इन्हें एक और संशोधन के ज़रिए हटाया जा सकता है? या इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया जा सकता है? पत्रकार राजेश चौधरी ने नवभारत टाइम्स के लिए एक लेख में इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का जिक्र किया। सुप्रीम कोर्ट ने 25 नवंबर 2024 को एक याचिका खारिज की थी जिसमें प्रस्तावना में ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों को चुनौती दी गई थी। कोर्ट ने कहा कि संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, जिसमें प्रस्तावना भी शामिल है।
संविधान की प्रस्तावना और मूल ढांचा
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता ज्ञानंत सिंह के अनुसार, इन दोनों शब्दों को प्रस्तावना से हटाया जा सकता है। उनका कहना है कि इन शब्दों के रहने या हटाने से संविधान के मूल ढांचे पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि संविधान का प्रारूप पहले से ही सेक्युलर है। उन्होंने 1994 के एसआर बोम्मई केस का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान की प्रस्तावना इसके मूल ढांचे का हिस्सा है।
वे यह भी कहते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, और 19 में सेक्युलरिज़्म का अहम पहलू है, जो नागरिकों को धर्म, जाति, लिंग या नस्ल के आधार पर भेदभाव से बचाता है और समानता का अधिकार प्रदान करता है।
Source: BBC News