भारतीय संविधान को ‘धर्मनिरपेक्ष’ (secular) क्यों माना जाता है?

भारतीय संविधान को ‘धर्मनिरपेक्ष’ (secular) क्यों माना जाता है, भले ही प्रारंभिक रूप से इसकी प्रस्तावना (Preamble) में यह शब्द न हो — यह एक महत्वपूर्ण संवैधानिक और राजनीतिक बहस का विषय है। हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने संविधान की प्रस्तावना में “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्दों को आपातकाल के दौरान जोड़े जाने को “सनातन की भावना के साथ बलात्कार” बताया। उनके इस बयान का समर्थन कई अन्य प्रमुख नेताओं ने भी किया है, जैसे कि केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा और आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले।

42वां संविधान संशोधन और प्रस्तावना में बदलाव

भारतीय संविधान की प्रस्तावना को एक दृष्टिकोण वक्तव्य (vision statement) माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने 1961 में ‘इन री: बेरुबारी यूनियन’ (In Re: The Berubari Union) नामक निर्णय में इसे संविधान निर्माताओं की “मंशा की कुंजी” कहा था। जब संविधान 1950 में लागू हुआ था, तब इसकी प्रस्तावना में लिखा था कि भारत एक “संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य” (Sovereign Democratic Republic) होगा, जो अपने सभी नागरिकों को “न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व” की गारंटी देगा।

हालांकि, आपातकाल के दौरान 1976 में लाया गया 42वां संविधान संशोधन इस प्रस्तावना में बड़ा बदलाव लेकर आया। इसमें “समाजवादी” (socialist) और “धर्मनिरपेक्ष” (secular) शब्दों को जोड़ दिया गया, जिससे यह “Sovereign Socialist Secular Democratic Republic” बन गई। साथ ही “integrity” शब्द को भी जोड़ा गया, जिससे प्रस्तावना में “individual dignity” के साथ-साथ “unity and integrity of the Nation” की बात की गई।

यह संशोधन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उस समय की राजनीतिक दिशा और आपातकालीन नियंत्रण की रणनीति का हिस्सा था। संशोधन ने न सिर्फ प्रस्तावना बदली, बल्कि मौलिक कर्तव्यों (Fundamental Duties) का नया अध्याय जोड़ा, राज्य के नीति निर्देशक तत्वों (Directive Principles) को और मजबूत किया, न्यायिक समीक्षा की शक्तियों को सीमित किया, और निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन (delimitation) को रोक दिया।

“धर्मनिरपेक्ष” शब्द जोड़ने के पीछे का उद्देश्य

हालांकि “समाजवादी” शब्द को जोड़ने के पीछे की वजह को संशोधन विधेयक की “ऑब्जेक्ट्स एंड रीजन” में स्पष्ट रूप से बताया गया — जैसे कि सामाजिक और आर्थिक न्याय की दिशा में निर्देशों को ज्यादा ताकत देना — लेकिन “धर्मनिरपेक्ष” शब्द को जोड़ने का औपचारिक कारण उतना स्पष्ट नहीं किया गया।

1970 के दशक में भारतीय राजनीति में भारतीय जनसंघ (जो बाद में भारतीय जनता पार्टी बना) तेजी से उभर रही थी। 1967 के आम चुनाव में जनसंघ को 35 सीटें मिली थीं और कांग्रेस की सीटें घटकर 283 रह गई थीं। 1971 में कांग्रेस ने फिर से सत्ता पाई, लेकिन जनसंघ अब इंदिरा गांधी की बड़ी राजनीतिक चुनौती बन चुका था। आपातकाल के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे कई जनसंघ नेता जेल में डाले गए थे।

इंदिरा गांधी ने लोकसभा में कहा था, “हमारे संविधान और देश के संस्थापक चाहते थे कि भारतीय समाज धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी हो… हम बस अब इसे संविधान में लिखित रूप दे रहे हैं, क्योंकि ये शब्द इसके योग्य हैं।”

“Integrity” शब्द का महत्व

“Integrity” शब्द को जोड़े जाने का संबंध आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की उस राजनीतिक भाषा से था जिसमें वो “राष्ट्र को तोड़ने वाली ताकतों” का ज़िक्र करती थीं। उस समय के कानून मंत्री एच आर गोखले ने संसद में कहा था, “जब हम अखंडता की बात करते हैं, तो इसका मतलब है कि देश का कोई विभाजन नहीं होगा, देश की एकता और अखंडता बनी रहेगी।”

क्या ये बदलाव असल में कोई असर डालते हैं?

संविधान की प्रस्तावना प्रतीकात्मक (symbolic) है, और सुप्रीम कोर्ट ने बेरुबारी यूनियन केस में स्पष्ट किया था कि प्रस्तावना संविधान का स्रोत नहीं है और यह किसी प्रकार की शक्ति नहीं देती। हालांकि, यह संविधान की मूल भावना को दर्शाती है। ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ जैसे मूल्य पहले से ही संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों और हिस्सों में अंतर्निहित थे।

उदाहरण के लिए:

  • अनुच्छेद 14 (Article 14) — समानता का अधिकार, जो हर नागरिक को कानून की निगाह में बराबरी का दर्जा देता है।
  • अनुच्छेद 15 — राज्य द्वारा धर्म, जाति, लिंग, नस्ल या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है।
  • अनुच्छेद 16 — सार्वजनिक रोजगार के मामलों में समान अवसर सुनिश्चित करता है।

इन प्रावधानों के चलते, संविधान पहले से ही धर्मनिरपेक्ष था, भले ही शब्द के रूप में ‘secular’ नहीं लिखा गया था।

सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले

  • केशवानंद भारती केस (1973) — सुप्रीम कोर्ट की 13-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की मूल संरचना (basic structure) का हिस्सा है, जिसे हटाया नहीं जा सकता। यह फैसला 42वें संशोधन से पहले का था, जिससे साफ होता है कि संविधान पहले से ही धर्मनिरपेक्ष था।
  • एस आर ब़ोम्मई बनाम भारत सरकार (1994) — यह फैसला संघ-राज्य संबंधों पर था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने फिर एक बार धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मूल संरचना बताया।
  • मिनर्वा मिल्स केस (1980) — इस फैसले में अदालत ने यह माना कि समाजवाद संविधान निर्माताओं का लक्ष्य था, और भाग IV (Directive Principles) में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है।

2024 का सुप्रीम कोर्ट निर्णय

नवंबर 2024 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली दो-न्यायाधीशों की पीठ ने उन याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिनमें 42वें संशोधन द्वारा “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ने को चुनौती दी गई थी। अदालत ने कहा कि इन शब्दों की मौजूदगी ने न तो किसी निर्वाचित सरकार की नीतियों को बाधित किया है, और न ही उन्होंने संविधान के मूल अधिकारों या मूल संरचना का उल्लंघन किया है।

इस प्रकार, भारतीय संविधान मूल रूप से ही धर्मनिरपेक्ष था, क्योंकि उसमें राज्य और धर्म के बीच स्पष्ट पृथक्करण का सिद्धांत पहले से मौजूद था। प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को जोड़ना एक प्रतीकात्मक कदम था, जिससे संविधान के मूल मूल्यों को रेखांकित किया गया। संविधान की संरचना, न्यायिक व्याख्या, और मौलिक अधिकार — सब मिलकर इसे न केवल धर्मनिरपेक्ष बनाते हैं, बल्कि यह सुनिश्चित करते हैं कि भारत में सभी धर्मों के लोगों को समान अधिकार और सम्मान मिले।

Source: Indian Express

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