संथाल विद्रोह, जिसे संथाली भाषा में ‘हुल’ कहा जाता है, 1855 में शुरू हुआ था। यह ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और उनके सहयोगी ज़मींदारों तथा महाजनों के विरुद्ध एक संगठित और सशक्त आदिवासी प्रतिरोध था। यह विद्रोह 1857 के पहले हुआ था, जिसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, और इस तरह संथाल विद्रोह को स्वतंत्रता की लड़ाई के पूर्वगामी रूप में देखा जा सकता है। यह केवल एक असंतोष का विस्फोट नहीं था, बल्कि यह एक सुनियोजित जनआंदोलन था जिसमें आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई गई थी।
संथालों के इस विद्रोह का नेतृत्व दो भाइयों – सिद्धू और कान्हू – ने किया। उनके साथ चांद और भैरव भी थे। इस विद्रोह में लगभग 32 जातियों और समुदायों ने भाग लिया था। यह विद्रोह डैमिन-ई-कोह नामक क्षेत्र में हुआ, जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1832 में बनाया था। यह क्षेत्र झारखंड के राजमहल की पहाड़ियों में स्थित था, और इसे विशेष रूप से संथालों के पुनर्वास के लिए आरक्षित किया गया था। संथालों को यहां बसाकर खेती करने का अवसर देने का वादा किया गया था, ताकि ब्रिटिश राजस्व वसूली को बढ़ा सकें। लेकिन बाद में इस नीति के पीछे छिपा उद्देश्य स्पष्ट हो गया — जंगल साफ करवाना, भूमि पर अधिकार जमाना और संथालों को बेगारी तथा करों के बोझ में फँसा देना।
संथालों को भूमि हड़पने, भारी करों, सूदखोरी, और दो प्रकार की बेगारी प्रथा – कमिओती (घरेलू काम) और हरवाही (खेती संबंधी काम) – का सामना करना पड़ा। ज़मींदार और महाजन अक्सर उन्हें धोखे से कर्ज देते और कई गुना वसूलते थे। धीरे-धीरे संथालों का जीवन अत्यंत दयनीय हो गया। जब उनका धैर्य जवाब देने लगा, तो 30 जून 1855 को भोगनाडीह गाँव से विद्रोह की शुरुआत हुई। इस दौरान संथालों ने पुलिस थानों, ज़मींदारों की हवेलियों और सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले किए। वे पूरी योजना के साथ आगे बढ़े, लेकिन उनके पास आधुनिक हथियार नहीं थे।
ब्रिटिश सरकार ने इस विद्रोह को कुचलने के लिए सशस्त्र सैनिक, बंदूकें और यहाँ तक कि युद्ध हाथियों का भी प्रयोग किया। अंततः 1856 तक यह आंदोलन दबा दिया गया। विद्रोह के दौरान सिद्धू और कान्हू दोनों शहीद हो गए। इसके बाद भी यह विद्रोह इतिहास में अपनी छाप छोड़ गया और स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
संथाल मूलतः बंगाल के बीरभूम, माणभूम, मुर्शिदाबाद, भागलपुर, बड़ाभूम, पलामू, और छोटानागपुर क्षेत्र से संबंधित हैं। 1770 के बंगाल अकाल के बाद वे धीरे-धीरे जंगलों की ओर बढ़े और फिर डैमिन-ई-कोह क्षेत्र में बसाए गए। प्रारंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी को उनकी मेहनतकश प्रवृत्ति और जंगल में रहने की क्षमता पसंद आई। स्थायी बंदोबस्त अधिनियम (1793) के लागू होने के बाद ब्रिटिशों को अधिक भूमि से अधिक राजस्व की जरूरत थी, जिसके लिए उन्होंने संथालों का उपयोग किया। लेकिन जब यही नीति शोषण में बदल गई, तब विद्रोह अपरिहार्य बन गया।
आज संथाल भारत की तीसरी सबसे बड़ी आदिवासी जनजाति हैं, जो झारखंड, ओडिशा, बिहार और पश्चिम बंगाल में फैले हैं। वे अपने संगीत, नृत्य, लोकगीतों और प्रकृति-आधारित जीवनशैली के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने समय के साथ शिक्षा, राजनीति और सामाजिक आंदोलनों में भी भागीदारी की है, लेकिन कई क्षेत्रों में वे अब भी हाशिये पर हैं और अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।
संथाल विद्रोह की 170वीं वर्षगांठ केवल एक इतिहास को याद करने का अवसर नहीं है, बल्कि यह हमारी जिम्मेदारी की भी याद दिलाती है कि हम आदिवासी समाज के संघर्षों, अधिकारों और संस्कृति के सम्मान और संरक्षण हेतु प्रतिबद्ध रहें। यह विद्रोह सिर्फ एक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह अस्मिता, आत्मसम्मान और स्वाधीनता की भावना का प्रतीक था, जिसकी गूंज आज भी झारखंड की धरती में सुनाई देती है।
Source: Indian Express