क्या किसी सिटिंग जज पर FIR हो सकती है? जानिए ‘वीरसामी केस’ की पूरी कहानी

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस सप्ताह कहा कि इस वर्ष मार्च में न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आवास पर बिना हिसाब-किताब की नकदी मिलने के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किए गए इन-हाउस जांच का “संविधान में कोई आधार या कानूनी वैधता नहीं” है और उन्होंने न्यायाधीश के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की।

धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के 1991 के के वीरास्वामी फैसले पर पुनर्विचार करने की मांग भी की, जिसमें उन्होंने कहा कि इसने न्यायपालिका के चारों ओर “दंड से छूट की एक संरचना” बना दी है। यह फैसला न्यायाधीशों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने की प्रक्रिया से संबंधित है।

न्यायमूर्ति वर्मा, जो उस समय दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश थे (अब स्थानांतरित होकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में हैं), 8 मई को इन-हाउस जांच में दोषी पाए गए।

बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ एफआईआर और आपराधिक जांच की मांग वाली याचिका खारिज कर दी और याचिकाकर्ताओं को बताया कि जांच रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजी जा चुकी है।

क्या न्यायमूर्ति वर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जा सकती है?

न्यायाधीशों को सुरक्षा

न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि न्यायाधीश बिना किसी व्यक्तिगत परिणामों के भय के स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकें। यदि कोई कानूनी या राजनीतिक पक्ष न्यायाधीशों को डराने या परेशान करने के लिए आपराधिक मामले दर्ज करे, तो यह न्यायपालिका की निष्पक्षता को खतरे में डाल सकता है।

संविधान के अनुसार, न्यायाधीशों के खिलाफ कार्रवाई का एकमात्र तरीका महाभियोग है। अनुच्छेद 124 के तहत यह प्रक्रिया संसद में शुरू होती है और यह काफी राजनीतिक होती है।

अब तक, किसी भी न्यायाधीश को महाभियोग के जरिए हटाया नहीं गया है।

इस स्थिति को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने एक इन-हाउस जांच तंत्र विकसित किया है, जिसमें मुख्य न्यायाधीश (CJI) कुछ न्यायाधीशों का एक पैनल बनाकर प्रारंभिक जांच करवाते हैं कि क्या शिकायत में कोई दम है। लेकिन अंततः इसकी रिपोर्ट भी कार्यपालिका को भेजी जाती है ताकि महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की जा सके।

इसलिए, जब महाभियोग पर्याप्त नहीं लगता, तब आपराधिक जांच की मांग उठती है

वीरास्वामी केस (1991)

न्यायमूर्ति के वीरास्वामी 1969 से 1976 तक मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। सेवानिवृत्ति से कुछ महीने पहले, उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे। आरोप था कि उनके पास 6.41 लाख रुपये की अवैध संपत्ति थी। CBI ने उनके खिलाफ FIR दर्ज की थी।

इस पर सवाल उठा कि क्या किसी वर्तमान न्यायाधीश के खिलाफ FIR दर्ज की जा सकती है?

न्यायमूर्ति वीरास्वामी ने मद्रास हाईकोर्ट में FIR रद्द करने की मांग की, लेकिन 1979 में तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने 2-1 से उनकी याचिका खारिज कर दी।

फिर यह मामला सुप्रीम कोर्ट गया, जिसने 1991 में फैसला सुनाया।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

हाँ, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश “लोक सेवक (Public Servant)” होता है, और उस पर भ्रष्टाचार कानून लागू हो सकता है।

लेकिन मंजूरी (Sanction) की जरूरत होगी, और यह मंजूरी मुख्य न्यायाधीश (CJI) से लेनी होगी।

इसका मतलब था कि न्यायपालिका के अंदर ही एक संस्थागत सुरक्षा बनाई गई ताकि कार्यपालिका हस्तक्षेप न कर सके।

अनुमति देने की मिसालें

1991 के फैसले के बाद CBI को अधिकार मिला कि वह मुख्य न्यायाधीश की अनुमति से किसी वर्तमान न्यायाधीश के खिलाफ केस दर्ज कर सकती है।

2019 में, पहली बार CJI रंजन गोगोई ने न्यायमूर्ति एस एन शुक्ला (इलाहाबाद हाईकोर्ट) के खिलाफ CBI को एफआईआर दर्ज करने की अनुमति दी। आरोप था कि उन्होंने एक निजी मेडिकल कॉलेज को लाभ पहुँचाया।

पूर्व CJI दीपक मिश्रा ने भी न्यायमूर्ति शुक्ला के महाभियोग की सिफारिश की थी, लेकिन सरकार ने उस पर कोई कार्रवाई नहीं की।

Source: Indian Express