भारत में जनगणना के आंकड़े लंबे समय से सार्वजनिक नीतियों के निर्माण की रीढ़ रहे हैं। ये आंकड़े स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और आवास जैसे क्षेत्रों में गहन जानकारी प्रदान करते हैं। इसी संदर्भ में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जातिगत गणना को शामिल करने की हालिया घोषणा ने व्यापक ध्यान आकर्षित किया है।
कई लोगों के लिए यह निर्णय ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) की जरूरतों को बेहतर ढंग से समझने और संबोधित करने हेतु आवश्यक आंकड़े जुटाने की दिशा में एक लंबित कदम प्रतीत होता है। हालांकि, केवल जातिगत जनगणना पर अत्यधिक बल देने से सरकार की मंशा और प्रतिबद्धता पर सवाल उठते हैं। ऐसा लगता है जैसे हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए कल्याणकारी नीतियों को लागू करने में केवल आंकड़ों के अभाव का बहाना बनाकर देरी की जा रही है।
जातिगत जनगणना की उपयोगिता
जातिगत जनगणना के समर्थकों का मानना है कि यह विभिन्न जातीय समूहों, विशेष रूप से ओबीसी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आंकलन करने हेतु ठोस आधार प्रदान करेगी। उनका यह भी तर्क है कि इससे अधिक लक्षित आरक्षण नीतियां बन सकेंगी और न्यायपालिका में कल्याणकारी योजनाओं की वैधता स्थापित हो सकेगी, जिसने कई बार सर्वेक्षण और आयोगों की रिपोर्टों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं।
इसके अतिरिक्त, ओबीसी के भीतर विभिन्न उप-श्रेणियों की पहचान और उनके बीच की असमानताओं को जानने में यह मददगार हो सकती है, जिससे अति पिछड़े वर्गों (EBCs) के लिए विशेष नीतियां बनाई जा सकें।
हालांकि ये तर्क अपने आप में उचित हैं, फिर भी यह मान लेना कि केवल जातिगत जनगणना से सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जा सकता है, अपने आप में एक अतिशयोक्ति है। जातिगत गणना एक बहुजातीय समाज में एक नियमित संस्थागत प्रक्रिया होनी चाहिए। लेकिन इसे सामाजिक व आर्थिक न्याय के लिए पूर्वशर्त मानना या नीतिनिर्माण की केंद्रीय आधारशिला बना देना, इसके मूल उद्देश्य की गलत व्याख्या है।
भारत के रजिस्ट्रार जनरल का कार्य केवल निष्पक्ष और तथ्यात्मक आंकड़े जुटाना है, न कि सरकार को सामाजिक कल्याण की योजनाएं डिजाइन करने के लिए दिशा-निर्देश देना। अगर जनगणना को राजनीतिक सुधारों का औजार बना दिया गया तो यह संस्था अपने मूल कार्यों से भटक जाएगी और इसकी निष्पक्षता पर खतरा मंडराने लगेगा, खासकर एक ध्रुवीकृत राजनीतिक माहौल में।
सरकार के नीति-निर्माताओं की यह जिम्मेदारी है कि वे उपलब्ध आंकड़ों और प्रमाणों के आधार पर वंचित समूहों के लिए योजनाएं बनाएं और लागू करें।
अनुभवजन्य साक्ष्य का महत्व
और भी महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि भारत में सामाजिक न्याय की नीतियां कभी भी ‘पूर्ण आंकड़ों’ की प्रतीक्षा में नहीं रुकीं। आरक्षण, भूमि सुधार और मंडल आयोग की सिफारिशों का क्रियान्वयन आंकड़ों की बजाय राजनीतिक संघर्ष, जन आंदोलनों और सत्ता वर्ग की नैतिक प्रतिबद्धता से प्रेरित था।
भारत में सार्वजनिक नीतियां अक्सर आंकड़ों की बजाय चुनावी रणनीतियों, वैचारिक झुकाव और जन दबाव द्वारा आकार लेती हैं। उदाहरणस्वरूप, मोदी सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) को आरक्षण देने का निर्णय किसी ठोस सांख्यिकीय अध्ययन या आयोग की सिफारिश पर नहीं, बल्कि राजनीतिक निर्णय शक्ति के आधार पर लिया गया था।
जातीय असमानता को लेकर पहले से ही पर्याप्त आंकड़े मौजूद हैं। स्वतंत्रता के बाद से अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) को प्रत्येक दस वर्षीय जनगणना में शामिल किया जाता रहा है। इसके अलावा, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (NSSO), राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) जैसी संस्थाएं नियमित रूप से इन वर्गों की शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक विषमताओं को उजागर करती रही हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े बताते हैं कि इन समुदायों के खिलाफ अपराध विशेषकर यौन हिंसा और एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत अत्याचार लगातार बढ़ रहे हैं।
इसी प्रकार बिहार की जातिगत सर्वेक्षण और पहले हुए सामाजिक-आर्थिक व जातिगत जनगणना (SECC) ने ओबीसी वर्ग की आंतरिक विषमताओं और आर्थिक कमजोरी को उजागर किया है। इन रिपोर्टों में स्पष्ट रूप से दिखाया गया है कि अधिकांश ओबीसी अब भी असंगठित, असुरक्षित और कम आय वाले रोजगारों में संलग्न हैं, जहां न तो सामाजिक सुरक्षा है और न ही ऊपर उठने का कोई अवसर।
इन सबके बावजूद, केंद्र सरकार ने अब तक कोई साहसिक या परिवर्तनकारी नीति नहीं अपनाई है। ओबीसी वर्ग के लिए विशेष रूप से राष्ट्रीय स्तर पर नीति निर्माण में एक स्पष्ट शून्यता दिखती है।
कई शैक्षणिक अध्ययनों और रिपोर्टों में यह भी उजागर हुआ है कि निजी क्षेत्र के प्रभावशाली क्षेत्रों — जैसे कॉर्पोरेट, आईटी उद्योग और मीडिया संस्थानों — में एससी/एसटी और ओबीसी वर्गों की भागीदारी नगण्य है। लेकिन इन क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
साथ ही, इन समुदायों की उपस्थिति राज्य संचालित संस्थाओं जैसे उच्च शिक्षा, न्यायपालिका और शीर्ष नौकरशाही में भी काफी सीमित है।
सामाजिक न्याय के लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति आवश्यक
विभिन्न सर्वेक्षणों, रिपोर्टों और शोधों से प्राप्त अनुभवजन्य साक्ष्य एक मूलभूत सच्चाई को रेखांकित करते हैं — कि आंकड़े अपने आप में नीति निर्माण को प्रेरित नहीं करते। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और लोकतांत्रिक जनदबाव की आवश्यकता होती है।
जातिगत जनगणना निश्चित रूप से बीमारी की पहचान में सहायक हो सकती है, लेकिन इलाज नहीं कर सकती। आंकड़े केवल नक्शा हैं; रास्ता तय करने के लिए निर्णय और साहस की जरूरत होती है।
अगर भारत को एक अधिक न्यायपूर्ण और समावेशी भविष्य की ओर बढ़ना है, तो केंद्र में बैठी राजनीतिक सत्ता को नैतिक और सामाजिक प्रतिबद्धता दिखानी होगी। आंकड़े इकट्ठा करना सरकार की परीक्षा नहीं है, असली कसौटी यह है कि वह सबसे वंचित समुदायों के लिए नीतियां बनाकर उन्हें पूरी निष्ठा से लागू करे।
लेखक: हरीश एस. वानखेडे
सहायक प्रोफेसर, राजनीतिक अध्ययन केंद्र, सामाजिक विज्ञान संकाय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।
Source: The Hindu