तमिलनाडु राज्यपाल आर.एन. रवि के खिलाफ हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने केवल वर्तमान संवैधानिक संकट को नहीं सुलझाया, बल्कि देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बीच हुए ऐतिहासिक मतभेद को भी फिर से सामने लाया।
फैसले में जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने 1951 की एक घटना को उद्धृत किया, जब राष्ट्रपति ने एक बिल पर अपनी स्वीकृति देने से इनकार करने की मंशा जताई थी — और यह सब हुआ था हिंदू कोड बिल को लेकर।
क्या था हिंदू कोड बिल और क्यों हुआ विवाद?
हिंदू कोड बिल, 1951 में पेश किया गया था, जिसमें हिंदू पर्सनल लॉ में बड़े और क्रांतिकारी बदलावों का प्रस्ताव था — जैसे कि महिलाओं को संपत्ति में अधिकार, तलाक की व्यवस्था, और विवाह की परिभाषा में बदलाव।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एक परंपरागत हिंदू विचारधारा के व्यक्ति थे और उन्होंने इस बिल पर गंभीर आपत्तियाँ जताईं। उन्होंने साफ किया कि वे इस बिल पर अपनी स्वतंत्र समझ के आधार पर निर्णय लेंगे — भले ही मंत्रिपरिषद उसे पारित करना चाहती हो।
इससे प्रधानमंत्री नेहरू और राष्ट्रपति प्रसाद के बीच टकराव की स्थिति बन गई।
कानूनी सलाह और हल:
इस विवाद को सुलझाने के लिए नेहरू सरकार ने भारत के पहले अटॉर्नी जनरल एम.सी. सीतलवाड़ से राय मांगी।
सीतलवाड़ ने साफ किया कि:
“भारतीय राष्ट्रपति की भूमिका ब्रिटिश राजा की तरह है — एक संवैधानिक प्रतीक मात्र। राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए।“
यानी, राष्ट्रपति को व्यक्तिगत विचारों से ऊपर उठकर, लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत काम करना होगा।
राष्ट्रपति प्रसाद का असंतोष — बाहर तो स्वीकार, भीतर असहजता
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति ने “सम्मानपूर्वक और बड़ेपन” के साथ सेतलवाड़ की राय को स्वीकार कर लिया, लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई।
एम.सी. सीतलवाड़ ने अपनी आत्मकथा ‘My Life – Law and Other Small Things’ में लिखा है कि:
“डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इस सलाह से संतुष्ट नहीं थे। वे भीतर ही भीतर असहज थे।”
यह बात स्पष्ट हुई जब राष्ट्रपति ने 1960 में इंडियन लॉ इंस्टीट्यूट की आधारशिला रखते हुए एक सार्वजनिक भाषण में फिर से इस मुद्दे को उठाया।
राष्ट्रपति की दो टूक बात — “मैं ब्रिटिश राजा नहीं हूँ”
इस भाषण में राष्ट्रपति प्रसाद ने स्पष्ट रूप से कहा:
- “संविधान में कहीं साफ-साफ नहीं लिखा है कि राष्ट्रपति को मंत्रियों की सलाह माननी ही होगी।”
- “ब्रिटिश राजा और भारतीय राष्ट्रपति की स्थिति एक जैसी नहीं है। मैं एक निर्वाचित व्यक्ति हूँ और मेरे खिलाफ महाभियोग लाया जा सकता है।”
- “हमारा संविधान लिखित है, और इसमें ब्रिटिश परंपराओं को ज्यों का त्यों अपनाना उचित नहीं है।”
यह भाषण उस समय नेहरू और सीतलवाड़, दोनों की मौजूदगी में दिया गया, और संसद व राजनीतिक हलकों में काफी हलचल मचा दी।
क्या हुआ अंत में?
हालांकि यह टकराव लंबे समय तक नहीं चला, लेकिन इसने भारत में राष्ट्रपति के अधिकारों और सीमाओं पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न जरूर लगा दिया।
सीतलवाड़ ने अपनी आत्मकथा में लिखा:
“समय ने मेरी राय को सही साबित किया है।“
आज भारत में राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों ही मुख्यतः सलाहकार के आधार पर कार्य करते हैं, और निर्णय लेने का अधिकार निर्वाचित मंत्रिपरिषद के पास होता है।
तमिलनाडु केस में इसका संदर्भ क्यों?
सुप्रीम कोर्ट ने इस ऐतिहासिक घटना को तमिलनाडु केस के संदर्भ में इसलिए उठाया, ताकि यह समझाया जा सके कि:
- राज्यपाल या राष्ट्रपति को मनमानी करने का अधिकार नहीं है।
- वे केवल एक संवैधानिक प्रमुख होते हैं, जो जनप्रतिनिधियों की सलाह के अनुसार काम करने के लिए बाध्य होते हैं।
- यदि कोई राज्यपाल या राष्ट्रपति संविधान की मर्यादा तोड़ते हैं, तो न्यायपालिका उनके आचरण की समीक्षा कर सकती है और हस्तक्षेप भी कर सकती है।
Source: The Hindu