हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी निवास से कथित तौर पर नकदी मिलने की खबर सामने आई। इसके बाद भारत के प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना ने इस मामले की जांच के लिए इन-हाउस जांच की शुरुआत की। तब से जस्टिस वर्मा को इलाहाबाद हाईकोर्ट वापस भेज दिया गया है और जांच पूरी होने तक उन्हें कोई न्यायिक काम नहीं सौंपा जाएगा।
क्या महाभियोग न्यायिक जवाबदेही का प्रभावी तरीका है, जब उसमें राजनीतिक सहमति जरूरी होती है?
संजय हेगड़े:
सच्चाई ये है कि महाभियोग का उद्देश्य जवाबदेही तय करना नहीं, बल्कि न्यायाधीशों को बचाना है। जब तक संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई सदस्य समर्थन न दें, कोई जज नहीं हटाया जा सकता। ऐसे में ये सोचना कि इसका डर जजों को अनुशासित रखेगा, गलत है। ज़रूरत इस बात की है कि न्यायपालिका के भीतर ही एक पारदर्शी और मज़बूत व्यवस्था बने, जो ऐसे मामलों को गंभीरता से ले और लोगों का भरोसा कायम रखे।
आलोक प्रसन्ना कुमार:
महाभियोग की प्रक्रिया इसलिए कठिन रखी गई है ताकि राजनीतिक बदले की भावना से जजों को न हटाया जा सके। आज़ादी से पहले, जज तो राजा के आदेश पर ही न्याय करते थे। मगर संवैधानिक लोकतंत्रों के साथ, अब जज राज्य की ताक़त को संतुलित करने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने लगे हैं। इसलिए जजों की स्वतंत्रता और सुरक्षा ज़रूरी है।
क्या सुप्रीम कोर्ट की इन-हाउस जांच प्रक्रिया में सुधार की जरूरत है?
संजय हेगड़े:
इस प्रक्रिया की शुरुआत इसलिए हुई थी कि सरकार या प्रशासन, जजों को सज़ा दिलवाने के बहाने से दबाव न बना सके। एक अहम मामला था — दिल्ली ज्यूडिशियल सर्विस एसोसिएशन बनाम गुजरात राज्य — जहां एक मजिस्ट्रेट के साथ पुलिस ने बदसलूकी की थी। इस तरह के मामलों से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अपने स्तर पर जांच की व्यवस्था शुरू की। लेकिन आज के हालात में इस व्यवस्था को कानूनी रूप से मज़बूत करने की ज़रूरत है।
आलोक प्रसन्ना कुमार:
हमारे देश में भ्रष्टाचार पर मुकदमा चलाना आसान नहीं है। जजों को संस्थागत सुरक्षा मिलती है और जांच एजेंसियों की हालत भी कमजोर है। उदाहरण लें — जस्टिस निर्मल यादव की — जिनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने 15 साल पहले जांच की सिफारिश की थी, लेकिन अब जाकर वो बरी हुईं। इसलिए इन-हाउस प्रक्रिया को और प्रभावी और पारदर्शी बनाना जरूरी है।
क्या जांच रिपोर्ट्स सार्वजनिक की जानी चाहिए?
आलोक प्रसन्ना कुमार:
बिलकुल। आज जब सोशल मीडिया और न्यूज़ मीडिया पर न्यायपालिका की हर बात पर नज़र है, तो गुप्तता अब एक विकल्प नहीं रह गया है। लेकिन ये पारदर्शिता सिर्फ संकट के वक्त नहीं, बल्कि हमेशा के लिए होनी चाहिए। हां, इस प्रक्रिया में न्याय के सिद्धांतों और आरोपी के अधिकारों का पूरा ख्याल रखा जाना चाहिए।
संजय हेगड़े:
मैं भी मानता हूं कि जांच में पारदर्शिता अच्छी बात है। लेकिन जस्टिस वर्मा के मामले में कोर्ट ने इसलिए फुटेज जारी की क्योंकि जनता में अफवाहें फैलने लगी थीं। कोर्ट ने सही किया कि पहले ही स्पष्ट कर दिया कि वो किसी जज को बचा नहीं रहा। लेकिन ऐसे मामलों में फैसला सोच-समझकर लिया जाना चाहिए ताकि आरोपी को निष्पक्ष सुनवाई का मौका भी मिले। एक सुझाव ये भी है कि कोर्ट को संचार के लिए एक समर्पित टीम नियुक्त करनी चाहिए, ताकि गलतफहमियां न फैले।
क्या सरकार को न्यायाधीशों की नियुक्तियों में भूमिका मिलनी चाहिए?
संजय हेगड़े:
सरकार की भूमिका पहले से है। असली सवाल ये है कि क्या उसे पूरा नियंत्रण मिलना चाहिए? अक्सर सरकार कुछ नामों को रोक देती है या उन पर फैसला नहीं करती, जिससे कई योग्य लोग सुप्रीम कोर्ट नहीं पहुंच पाते।
आलोक प्रसन्ना कुमार:
अब तो कॉलेजियम सिस्टम नाम का ही रह गया है — व्यवस्था असल में एक ‘सर्च और सिलेक्शन कमिटी’ जैसी हो गई है। सरकार अपनी पसंद से नाम चुनती है या टाल देती है। इससे कई योग्य वकील इस प्रक्रिया में शामिल ही नहीं होना चाहते। असल ज़रूरत है पारदर्शिता की। जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ के समय में कुछ अच्छे कदम उठाए गए थे, जैसे सिफारिशों की वजहों को सार्वजनिक करना — मगर अब वह भी बंद हो चुका है।
क्या 2010 का ‘ज्यूडिशियल स्टैंडर्ड्स एंड अकाउंटबिलिटी बिल’ दोबारा लाया जाना चाहिए?
आलोक प्रसन्ना कुमार:
मुझे नहीं लगता कि उस बिल से कुछ फायदा होगा। ज़रूरत है एक बेहतर, ठोस और संतुलित व्यवस्था की। उदाहरण के लिए — हर जज को यह बताना चाहिए कि उनके रिश्तेदार उसी कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे हैं या नहीं। और अगर हैं, तो या तो जज का तबादला हो या रिश्तेदार को उस कोर्ट में पेश होने से रोका जाए। सिर्फ नए निकाय बनाना समाधान नहीं है, क्योंकि वे भी वही सेवानिवृत्त जज चलाएंगे, जिनके कारण मौजूदा समस्याएं हैं।
संजय हेगड़े:
हमें कानून से पहले न्यायपालिका की आंतरिक समीक्षा प्रणाली को औपचारिक रूप देना चाहिए। कोर्ट के गलियारों में पहले ही चर्चाएं होती रहती हैं कि कौन जज कैसा है। अगर वकील संघों और साथियों की राय को प्रणाली में शामिल किया जाए, तो पहले ही किसी जज के खिलाफ कदम उठाए जा सकते हैं।
क्या न्यायपालिका की आलोचना को लेकर ‘अवमानना कानून’ को उदार बनाना चाहिए?
आलोक प्रसन्ना कुमार:
ज़रूर, लेकिन अगर जज बिना वजह इनका इस्तेमाल करते हैं और उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती, तो इसका कोई असर नहीं होगा। जरूरी है कि ईमानदार आलोचना को जगह मिले। कई बार अवमानना का मामला गुस्से या डर से किया जाता है, न कि संस्थागत संतुलन बनाए रखने के लिए। इसलिए जनता को ये अधिकार मिलना चाहिए कि वे न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठा सकें, बशर्ते वह अच्छे इरादे से हो।
दिल्ली स्थित वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े; विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के सह-संस्थापक आलोक प्रसन्ना कुमार
Source: The Hindu