सूचना का अधिकार (RTI) अब ‘सूचना न देने का अधिकार’ बनता जा रहा है

लेख में पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी द्वारा बताया गया है कि सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम, जो पारदर्शिता और नागरिक अधिकारों को सशक्त बनाने के लिए लाया गया था, धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा है। आइए इसे विस्तार से बिंदुवार समझते हैं:


1. सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI) का उद्देश्य

  • वर्ष 2005 में लागू यह अधिनियम नागरिकों को सरकार से सूचना प्राप्त करने का कानूनी अधिकार देता है।
  • इसे भ्रष्टाचार को रोकने और प्रशासन में जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए लाया गया था।
  • नागरिकों को शासन में भागीदारी का अवसर देने के लिए इसे एक मूलभूत अधिकार के रूप में देखा गया था।

2. सरकार द्वारा आरटीआई अधिनियम को कमजोर करने का प्रयास

  • इस अधिनियम के लागू होने के कुछ महीनों बाद ही सरकार को एहसास हुआ कि यह जनता और सरकार के बीच शक्ति संतुलन को बदल सकता है।
  • 2006 में सरकार ने इसे संशोधित करने की कोशिश की, जिससे इसकी शक्ति कम हो जाती।
  • लेकिन जनता के भारी विरोध के कारण सरकार को यह संशोधन वापस लेना पड़ा।

3. सूचना आयोगों में पारदर्शिता की कमी

  • आरटीआई अधिनियम के तहत सूचना आयोगों (Information Commissions) की स्थापना की गई, जो अंतिम अपीलीय प्राधिकारी होते हैं।
  • अधिकतर सूचना आयुक्त सेवानिवृत्त नौकरशाह (Retired Bureaucrats) बनाए गए, जिन्होंने पारदर्शिता बढ़ाने के बजाय इसे हतोत्साहित किया।
  • सूचना आयुक्तों की कार्यशैली:
    • वे नागरिकों को सूचना देने में टाल-मटोल करते हैं।
    • उन्होंने इसे केवल एक रिटायरमेंट के बाद का आरामदायक पद बना लिया है।
    • जबकि उच्च न्यायालय के जज औसतन 2500 से अधिक मामलों का निपटारा सालाना करते हैं, सूचना आयुक्तों का औसत इससे भी कम है।

4. मामलों के निस्तारण में देरी और पारदर्शिता की हानि

  • अधिनियम में सूचना देने की 30 दिनों की समय-सीमा तय थी, लेकिन सूचना आयोगों के लिए ऐसी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं थी।
  • इसका परिणाम यह हुआ कि अब मामलों का निस्तारण 1 साल या उससे अधिक समय में हो रहा है।
  • सूचना का अधिकार धीरे-धीरे इतिहास जानने का अधिकार बन गया है, क्योंकि जब तक सूचना मिलती है, तब तक वह प्रासंगिक नहीं रहती।

5. आरटीआई अधिनियम को कमजोर करने वाले न्यायालयों के फैसले

(i) सुप्रीम कोर्ट का 2011 का फैसला (CBSE बनाम आदित्य बंधोपाध्याय मामला)

  • इस फैसले में कहा गया कि RTI का असीमित और अनावश्यक उपयोग प्रशासन की कार्यक्षमता को बाधित कर सकता है
  • इसमें यह भी कहा गया कि सूचना मांगने की प्रक्रिया सरकार के लिए बोझ न बने
  • इस फैसले के बाद आरटीआई कार्यकर्ताओं को संदेह की नजर से देखा जाने लगा।

(ii) 2012 का गिरीश रामचंद्र देशपांडे बनाम केंद्रीय सूचना आयोग मामला

  • इस केस में एक व्यक्ति ने एक सरकारी कर्मचारी की संपत्ति, निवेश और वित्तीय लेन-देन की जानकारी मांगी थी।
  • सुप्रीम कोर्ट ने इसे “व्यक्तिगत सूचना” (Personal Information) बताकर देने से मना कर दिया।
  • यह निर्णय आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1)(j) की गलत व्याख्या पर आधारित था।
  • इस फैसले को छह अन्य फैसलों में मिसाल के रूप में इस्तेमाल किया गया और अब इसे सूचना न देने के लिए आधार बना दिया गया है।

6. डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन अधिनियम (DPDP) का प्रभाव

  • 2023 में पारित यह नया अधिनियम नागरिकों की व्यक्तिगत जानकारी को सुरक्षा प्रदान करने की बात करता है, लेकिन इसका उपयोग सरकारी पारदर्शिता को सीमित करने के लिए किया जा सकता है
  • इस कानून का उपयोग सूचना के अधिकार को और कमजोर करने के लिए किया जा सकता है।

7. आरटीआई अधिनियम को बचाने के लिए नागरिकों की भूमिका

  • नागरिकों को आरटीआई अधिनियम की मूल भावना को बनाए रखने के लिए संघर्ष करना होगा।
  • मीडिया और सामाजिक संगठनों को इस मुद्दे पर चर्चा और जन-जागरूकता बढ़ानी होगी।
  • संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत नागरिकों का यह मौलिक अधिकार है, जिसे किसी भी हालत में कमज़ोर नहीं होने देना चाहिए।

निष्कर्ष

  • सूचना का अधिकार अधिनियम सरकार के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करने का एक मजबूत हथियार था, लेकिन इसे कमजोर किया जा रहा है।
  • सूचना आयोगों की निष्क्रियता, न्यायालयों के कुछ फैसले और नए डेटा संरक्षण कानून इसे धीरे-धीरे ‘सूचना न देने का अधिकार’ (Right to Deny Information) बना रहे हैं।
  • अगर नागरिकों ने इस पर ध्यान नहीं दिया तो पारदर्शिता और लोकतंत्र की शक्ति ब्यूरोक्रेसी और सरकार के पक्ष में स्थानांतरित हो जाएगी।

समाधान:

  • जनता को सतर्क रहना होगा और सरकार से आरटीआई कानून को बनाए रखने और सशक्त करने की मांग करनी होगी
  • इसके लिए सामाजिक आंदोलनों, मीडिया जागरूकता और न्यायालयों में सक्रिय पैरवी आवश्यक होगी।

Source: The Hindu

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