मुद्रास्फीति

मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन

  1. मुद्रास्फीति
  2. अवस्फीति अथवा मुद्रा संकुचन
  3. मुद्रा संस्फीति
  4. मुद्रा अपस्फीति

मुद्रास्फीति

  • सामान्य अर्थों में मुद्रास्फीति अथवा मुद्रा प्रसार वह स्थिति है जिसमें कीमत स्तर में वृद्धि होती है तथा मुद्रा का मूल्य गिरता है।
  • मुद्रास्फीति वह अवस्था है जब वस्तुओं की उपलब्ध मात्रा की तुलना में मुद्रा तथा साख की मात्रा में अधिक वृद्धि होती है और परिणाम स्वरूप मूल्य स्तर में निरन्तर व महत्वपूर्ण वृद्धि होती है।
  • कीन्स के अनुसार वास्तविक मुद्रास्फीति पूर्ण रोजगार बिन्दु के बाद ही उत्पन्न होती है। पूर्ण रोजगार बिन्दु से पूर्व उत्पन्न होने वाली स्फीति आंशिक स्फीति कहलाती है, जो प्रेरणात्मक होती है।

मुद्रास्फीति से अभिप्राय बढ़ती हुई कीमतों के क्रम से है, न कि बढ़ी हुई कीमतों की स्थिति से।

  1. अत्यधिक मुद्रा निर्गमन से उत्पन्न स्फीति को चलन स्फीति कहते हैं।
  2. उदार ऋणनीति के फलस्वरूप व्यापारिक बैंको द्वारा अत्यधिक साख निर्गमन के कारण उत्पन्न स्फीति को साख स्फीति कहते हैं।
  3. वस्तुओं और सेवाओं की तेजी से बढ़ती मांग और फलस्वरूप तेजी से बढ़ती मुद्रा की सक्रियता के कारण बढ़ने वाली कीमतें मांग प्रेरित स्फीति उत्पन्न करती है।
  4. वस्तुओं की उत्पादन लागत बढ़ जाने के कारण जब वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाया जाता है तब इसे लागत प्रेरित स्फीति कहा जाता है।
  5. बजट के घाटे को पूरा करने के लिए हीनार्थ प्रबन्धन के अन्तर्गत नए नोटों का छापा जाना मुद्रा की पूर्ति का विस्तार करता है जिससे कीमतों में वृद्धि होती है। इसे हीनार्थ प्रेरित स्फीति या बजटीय स्फीति कहा जाता है।
  6. अवमूल्यन के फलस्वरूप निर्यात बढ़ने तथा देश में आन्तरिक पूर्ति घट जाने से वस्तुओं की कीमतें बढ़ने लगती हैं जिससे अवमूल्यन जनित स्फीति उत्पन्न होती है।
  7. खुली मुद्रास्फीति में समाज की बढ़ती हुई आय के उपभोग पर कोई नियन्त्रण नहीं लगाया जाता जबकि दबी मुद्रास्फीति में उपभोग की मात्रा पर नियंत्रण लगा दिया जाता है।

 

मुद्रा प्रसार के लिए उत्तरदायी सरकार की नीतियां –

  1. हीनार्थ प्रबन्धन
  2. अतिरिक्त मुद्रा निर्गमन
  3. उदार ऋण व साख नीति
  4. युद्धजनित अनुत्पादक व्यय
  5. प्रतिगामी कराधान नीति
  6. प्रशुल्क एवं व्यापार नीति
  7. कठोर उद्योग नीति

 

मुद्रास्फीति के प्रभाव –

  1. उत्पादक वर्ग (कृषक, उद्योगपति, व्यापारी) को लाभ होता है।
  2. ऋणी को लाभ तथा ऋणदाता को हानि होती है।
  3. निश्चित आय प्राप्त करने वाला उपभोक्ता तथा वेतनभोगी वर्ग कष्ट वहन करता है।
  4. विनियोगी वर्ग – क) निश्चित आय वाले वर्ग को हानि होती है। ख) परिवर्तित आय वाले वर्ग को लाभ होता है।
  5. समाज में आर्थिक विषमताऐं बढ़ जाती हैं। धनी वर्ग और धनी तथा निर्धन वर्ग और निर्धन होता चला जाता है।
  6. नैतिक पतन और सामाजिक विघटन होने लगता है।

 

मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के उपाय –

क) राजकोषीय उपाय –

  1. 1. सन्तुलित बजट लाना।
  2. 2. सार्वजनिक व्यय विशेषकर अनुत्पादक व्यय पर नियन्त्रण रखना।
  3. 3. प्रगतिशील करारोपण ।
  4. 4. सार्वजनिक ऋण में वृद्धि करना।
  5. 5. उत्पादन में वृद्धि करना।

ख) मौद्रिक उपाय –

  1. मुद्रा निर्गमन के नियमों को कठोर बनाना।
  2. मुद्रा की मात्रा को संकुचित करना।
  3. कठोर साख नीति अपनाना।

 

स्फीतिक अन्तराल

इस धारणा का प्रतिपादन प्रो0 जे0 एम0 कीन्स ने 1940 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘How to Pay for War’ में किया था। यह अन्तराल अर्थव्यवस्था की उस स्थिति का द्योतक है जब अनुमानित व्यय स्थिर मूल्यों पर उपलब्ध उत्पादन की कीमत से अधिक हो जाता है। अन्य शब्दों में स्फीतिक अन्तराल समाज की सम्भावित प्रभावपूर्ण मांग तथा स्थिर कीमतों पर उपलब्ध उत्पादन की मात्रा के बीच अन्तर को व्यक्त करता है। जब समाज द्वारा संभावित अथवा नियोजित व्यय की मात्रा कुल उपलब्ध उत्पादन का मूल्य से (पूर्व स्फीति कीमतों के आधार पर) अधिक होती है तो स्फीतिक अन्तराल उत्पन्न हो जाता है।

 

मुद्रा संकुचन अथवा मुद्रा अवस्फीति

यह मुद्रा स्फीति की विपरीत अवस्था है। इसमें मुद्रा का मूल्य बढ़ता है और वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य घटता है।

 

प्रो0 पीगू के अनुसार मुद्रा संकुचन के दो प्रमुख लक्षण हैं-

(क) उत्पादन में वृद्धि मुद्रा की मात्रा से अधिक होती है।

(ख) मूल्यों में गिरावट आती रहती है।

 

मुद्रा संकुचन निम्न परिस्थितियों में दृष्टिगोचर होता है –

  1. मौद्रिक आय यथावत् अथवा गिरती रहे पर वस्तुओं का उत्पादन बढ़े।
  2. मौद्रिक आय तथा उत्पादन दोनों घटे पर मौद्रिक आय में कमी अधिक हो।
  3. मौद्रिक आय तथा उत्पादन दोनों बढ़े परन्तु उत्पादन में वृद्धि अपेक्षाकृत अधिक हो।
  4. उत्पादन यथावत् रहे पर मौद्रिक आय घटे।
  5. जब वस्तुओं की पूर्ति मांग से अधिक हो।

मुद्रा संकुचन के रोकने के उपाय –

(क) मौद्रिक उपाय –

  1. मुद्रा का अधिक निर्गमन
  2. साख मुद्रा का विस्तार

(ख) राजकोषीय उपाय –

  1. सार्वजनिक व्यय में वृद्धि
  2. करारोपण में कमी
  3. ऋणों का भुगतान
  4. आर्थिक सहायता एवं अनुदान में वृद्धि

(ग) अन्य उपाय –

  1. निर्यात में वृद्धि
  2. आयात में कमी
  3. पूर्ति पर नियंत्रण

मुद्रा स्फीति अन्यायपूर्ण तथा मुद्रा संकुचन अनुपर्युक्त है परन्तु इन दोनों में मुद्रा संकुचन ही अधिक बुरा है।

मुद्रा अवस्फीति अर्थव्यवस्था में आर्थिक क्रियाओं को समाप्त करके बेरोजगारी बढ़ाती है और संपूर्ण अर्थव्यवस्था निष्क्रिय एवं निर्जीव होकर मंदी के दौर में फंस जाती है।

मुद्रा संस्फीति

वह प्रक्रिया है जिसमें जान बूझकर मुद्रा और साख की मात्रा में वृद्धि करके वस्तु मूल्यों में वृद्धि का प्रयास किया जाता है। संस्फीति प्रायः अर्थव्यवस्था में व्याप्त मन्दी से छुटकारा प्राप्त करने के लिए किया जाता है।

मुद्रा स्फीति और संस्फीति की प्रकृति लगभग एक सी होती है। दोनों में ही मुद्रा की मात्रा बढ़ती है तथा कीमतों में वृद्धि होती है परन्तु दोनों में कुछ महत्वपूर्ण अन्तर होता है। संस्फीति जान बूझकर नियंत्रणात्मक रूप में बिगड़ी हुई स्थिति को सुधारने के लिए अपनाई जाती है जबकि मुद्रा स्फीति प्रायः अनियंत्रित एवं परिस्थितिजन्य होती है।

 

मुद्रा अपस्फीति

मुद्रा अपस्फीति के अन्तर्गत वे सब क्रियाऐं, नीतियां व उपाय आते हैं जो मुद्रा स्फीति के वेग को रोकने के लिए किए जाते हैं।

मुद्रा संकुचन या विस्फीति देश में मन्दी की स्थिति उत्पन्न करती है जबकि मुद्रा अपस्फीति कीमत स्तर को सामान्य अवस्था में लाने के लिए की जाती है। मुद्रा अपस्फीति नियोजित रूप में एक निर्धारित नीति के अनुसार की जाती है जबकि मुद्रा संकुचन स्वंय उत्पन्न होती है। मुद्रा अपस्फीति देश की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए होती है जबकि मुद्रा संकुचन से देश को हानि होती है। संकुचन या अवस्फीति तथा अपस्फीति दोनों ही गिरती हुई कीमतों की सूचक होती हैं तथा दोनों की प्रकृति लगभग एक सी होती है।

 

गतिहीन स्फीति अथवा निस्पंद स्फीति

यह उस स्थिति का द्योतक है जब अर्थव्यवस्था में एक ओर तो कीमतें बढ़ती हैं तथा दूसरी ओर आर्थिक विकास अवरूद्ध होकर अर्थव्यवस्था में निष्क्रियता और जड़ता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अर्थात आर्थिक निष्क्रियता अथवा विकास में स्थिरता तथा स्फीति एक साथ मौजूद रहते हैं।

 

निस्पंद स्फीति में मुद्रा स्फीति , मंहगाई, बेरोजगारी तथा उत्पादन में जड़ता साथ साथ विद्यमान रहते हैं। सैम्युलसन के शब्दों में – निस्पंद स्फीति एक नई बीमारी है जिसमें वस्तुओं के मूल्यों तथा मजदूरी की दरों में वृद्धि होती है, किन्तु साथ ही साथ बेरोजगारी में भी वृद्धि होती है और उत्पादित किया हुआ माल बिकना कठिन हो जाता है।

निस्पंद स्फीति उत्पन्न होने के कारण –

  1. मुद्रा की मात्रा में तेजी से वृद्धि
  2. मजदूरी दरों में तीव्र वृद्धि
  3. प्राकृतिक प्रकोप
  4. विदेशी व्यापार में घाटा
  5. उत्पादन लागत में वृद्धि
  6. लम्बे समय तक मुद्रा स्फीति की स्थिति बने रहना।

कीन्स के अनुसार – पूर्ण रोजगार वह स्थिति है जिसमें प्रभावपूर्ण मांग की वृद्धि उत्पादन एवं रोजगार की मात्रा में वृद्धि नहीं करती, बल्कि कीमत स्तर में वृद्धि उत्पन्न कर देती है।