भारत और श्रीलंका के बीच सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंधों में नई पहल

 

भारत द्वारा श्रीलंका के जाफना सांस्कृतिक केंद्र का नाम महान तमिल कवि-दार्शनिक तिरुवल्लुवर के नाम पर रखने का निर्णय दोनों देशों के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। जब कुछ श्रीलंकाई तमिलों ने केंद्र के नाम में ‘जाफना’ न होने पर आपत्ति जताई, तो भारतीय प्रशासन ने तुरंत इसमें सुधार करते हुए इसे “जाफना तिरुवल्लुवर सांस्कृतिक केंद्र” नाम दिया। यह केंद्र भारत सरकार द्वारा निर्मित एक महत्वपूर्ण स्थल बन चुका है।

पिछले चार दशकों में दोनों देशों के राजनीतिक संबंधों में काफी बदलाव आए हैं। 1983 में श्रीलंका में हुए तमिल विरोधी दंगों के बाद भारत को मध्यस्थ की भूमिका निभानी पड़ी, जो बाद में एक सक्रिय भूमिका में बदल गई। इस जटिल संबंध का परिणाम 1987 का भारत-श्रीलंका समझौता था, जिसके तहत श्रीलंकाई संविधान में 13वां संशोधन (13A) किया गया। इस संशोधन के तहत प्रांतीय परिषदों की स्थापना की गई, जिससे सीमित स्वायत्तता प्रदान की गई। हालांकि, श्रीलंका के मौजूदा राष्ट्रपति अनुरा कुमारा डिसानायके की पार्टी जनथा विमुक्ति पेरामुना (JVP) सहित कई समूहों ने इसे भारत द्वारा थोपा गया समझौता माना।

लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) भी इस समझौते से असंतुष्ट था, क्योंकि उनकी मांग स्वतंत्र तमिल ईलम के गठन की थी, जिसे भारत कभी समर्थन नहीं दे सकता था।

13वें संशोधन को लागू हुए 35 से अधिक वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन इसे पूरी तरह प्रभावी नहीं बनाया गया है, खासकर तमिल बहुल क्षेत्रों में। हालांकि, अधिकांश हिस्सों में 1988 से 2019 तक प्रांतीय परिषदें काम करती रहीं।

भारतीय नेता लगातार श्रीलंकाई नेतृत्व से इस संशोधन के ‘पूर्ण और प्रभावी कार्यान्वयन’ की अपील करते रहे हैं। अक्टूबर 2024 में जब भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने राष्ट्रपति डिसानायके से मुलाकात की, तो उन्होंने इस विषय पर चर्चा की। हालांकि, दिसंबर 2024 में डिसानायके की भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 13A पर सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा। उन्होंने श्रीलंका के संविधान के पूर्ण कार्यान्वयन और प्रांतीय परिषद चुनावों के आयोजन की बात जरूर की, लेकिन इससे यह सवाल उठने लगा है कि क्या भारत अब इस मुद्दे से दूरी बना रहा है?

यह चुप्पी महत्वपूर्ण है, खासकर जब JVP का 13A को लेकर पुराना विरोध ध्यान में रखा जाए। हालांकि, अभी यह स्पष्ट नहीं है कि श्रीलंका की सत्तारूढ़ गठबंधन सरकार इस संशोधन को रद्द करने के पक्ष में है या नहीं। प्रधानमंत्री हरिनी अमरासूर्या ने फरवरी 2023 में कहा था कि उनकी पार्टी इसे लागू करने की पक्षधर है, लेकिन यह राष्ट्रीय समस्या का अंतिम समाधान होगा या नहीं, इस पर बहस जारी है।

NPP (राष्ट्रीय जनशक्ति प्रतिष्ठान) के चुनावी घोषणापत्र में यह उल्लेख किया गया था कि वे लोकतंत्र को मजबूत करने और सभी नागरिकों की समानता सुनिश्चित करने के लिए एक नया संविधान लाएंगे। इसके अलावा, प्रांतीय परिषदों और स्थानीय निकायों के चुनावों को एक वर्ष के भीतर कराने की बात भी कही गई थी।

स्थानीय निकाय चुनाव कराना अच्छी पहल हो सकती है, लेकिन इन्हें प्रांतीय परिषदों का विकल्प नहीं माना जा सकता। श्रीलंका में शहरीकरण और वित्तीय संसाधनों की सीमाओं जैसी समस्याओं का समाधान केवल स्थानीय निकायों के माध्यम से संभव नहीं है। यही कारण है कि प्रांतीय परिषदें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। 2017 में श्रीलंकाई संविधान सभा की संचालन समिति की अंतरिम रिपोर्ट में भी इस बात पर जोर दिया गया था कि प्रांतों को सत्ता विकेंद्रीकरण की मूल इकाई माना जाना चाहिए।

JVP को अब 13वें संशोधन को केवल भारतीय पहल के रूप में देखने की धारणा से बाहर आना होगा। भारत-श्रीलंका समझौता और 13A कई वर्षों की कूटनीतिक प्रक्रियाओं का परिणाम है, जो 1983-87 के बीच दोनों देशों में हुई लंबी चर्चाओं के बाद अस्तित्व में आया। श्रीलंका का संविधान भी ब्रिटिश, अमेरिकी और फ्रांसीसी संवैधानिक प्रणालियों से प्रभावित रहा है।

अब जबकि श्रीलंका में एक नई सरकार है और राष्ट्रपति डिसानायके को जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त है, यह सही समय है कि वे एक स्थायी समाधान की दिशा में काम करें। श्रीलंका के नागरिक, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास रखते हैं और चुनावों के माध्यम से सत्ता परिवर्तन करते आए हैं, एक ऐसे समाधान के हकदार हैं जो उनके लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप हो।

NPP के पास दो-तिहाई संसदीय बहुमत के साथ एक सुनहरा अवसर है कि वह आर्थिक और राजनीतिक कारकों से उपजे इस जटिल जातीय मुद्दे का स्थायी समाधान निकाले। अब देखना होगा कि श्रीलंका इस ऐतिहासिक अवसर का उपयोग कैसे करता है।

Source: The Hindu