भारत निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा बिहार में चलाए जा रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) अभियान को सतही तौर पर एक सफल और सुचारु प्रक्रिया बताया जा रहा है, जहां अनुमानित मतदाताओं में से 11% से अधिक लोगों ने फॉर्म जमा किए हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में कई विरोधाभास और गंभीर खामियाँ उजागर हो रही हैं, जो मतदाता नामांकन के अधिकार के लिए खतरा बन सकती हैं।
विरोधाभासी दिशानिर्देश और भ्रम की स्थिति
बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी (CEO) द्वारा दिए गए प्रारंभिक विज्ञापनों में यह दर्शाया गया था कि 11 आवश्यक दस्तावेज़ों की अनुपस्थिति में भी मतदाता नामांकन फॉर्म भर सकते हैं। लोगों को यह बताया गया कि वे फॉर्म भरकर बूथ-स्तरीय अधिकारियों को सौंप सकते हैं और दस्तावेज़ बाद में जमा किए जा सकते हैं। साथ ही यह भी कहा गया कि यदि दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं, तो स्थानीय जांच के माध्यम से पहचान सत्यापित की जा सकती है।
लेकिन इसके ठीक विपरीत, भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त (CEC) ने यह स्पष्ट कर दिया कि दस्तावेजों की अनिवार्यता वाली पुरानी अधिसूचना अभी भी लागू है। इसके अनुसार, 25 जुलाई 2025 तक दस्तावेज़ जमा करना अनिवार्य है, और जिन लोगों के दस्तावेज़ स्वीकार नहीं होंगे, उनके लिए 1 अगस्त से 1 सितंबर के बीच दावा और आपत्ति (Claims & Objections) की प्रक्रिया चलाई जाएगी।
स्थानीय अधिकारियों के विवेक पर निर्भरता: खतरे की घंटी
स्थानीय स्तर पर अधिकारियों द्वारा सत्यापन की प्रक्रिया को पूरी तरह उनके विवेक पर छोड़ देना, गंभीर समस्याएं पैदा कर सकता है। इससे पक्षपात, भ्रष्टाचार, या गलत नामांकन/निकासी की संभावना बढ़ जाती है। यह प्रक्रिया मतदाता सूची की विश्वसनीयता को कमजोर कर सकती है।
जरूरी है एक व्यावहारिक और समावेशी नीति
बिहार जैसे राज्य में, जहां जन्म प्रमाण पत्र, स्कूल नामांकन या अन्य आधिकारिक दस्तावेज़ों की ऐतिहासिक रूप से कमी रही है, वहां अधिकांश गरीब और ग्रामीण नागरिकों के पास 11 निर्धारित दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में ECI को पहचान के लिए आधार कार्ड, राशन कार्ड, और मनरेगा जॉब कार्ड जैसे सर्वसुलभ और व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले दस्तावेजों को स्वीकार करना चाहिए।
आधार कार्ड: यह लगभग हर सरकारी योजना और सेवा में अनिवार्य रूप से प्रयोग होता है और अधिकांश नागरिकों के पास उपलब्ध है।
राशन कार्ड और मनरेगा जॉब कार्ड: विशेष रूप से ग्रामीण और गरीब आबादी के पास ये दस्तावेज़ आम हैं, क्योंकि ये सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से जुड़े होते हैं।
लोकतांत्रिक अधिकारों की अनदेखी
इस समय चल रही पुनरीक्षण प्रक्रिया ऐसा प्रतीत कर रही है मानो हर मतदाता को पहले “गैर-नागरिक” मान लिया गया है और उसे अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। यह भारत के सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise) के सिद्धांत के खिलाफ है।
इस प्रक्रिया से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोग वे हैं जो पहले से ही सरकारी तंत्र से जूझ रहे हैं — जैसे दलित, आदिवासी, मुसलमान, महिला प्रमुख परिवार, ग्रामीण मज़दूर, प्रवासी मज़दूर आदि। यदि ECI इस प्रक्रिया को नहीं बदलता है, तो लाखों वास्तविक मतदाता आगामी चुनावों में मतदान से वंचित हो सकते हैं।
Source: The Hindu