भारत में दलाई लामा का शरण और तिब्बत-चीन संबंध

26 अप्रैल 1959, तिब्बत और भारत-चीन संबंधों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन था। यह वह दिन था जब तिब्बत के धार्मिक और राजनीतिक नेता, दलाई लामा, चीन के आक्रमण के बाद अपनी मातृभूमि से भागकर भारत पहुंचे थे। भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनका स्वागत करते हुए उन्हें भारत में शरण देने का वादा किया था। नेहरू का यह कदम न केवल तिब्बत के संघर्ष के प्रति भारत के समर्थन का प्रतीक था, बल्कि यह भारत-चीन रिश्तों में एक बड़ी दरार का कारण भी बना, जो बाद में 1962 के युद्ध में बदल गई।

दलाई लामा और उनके समर्थकों ने मार्च 1959 में चीन के अत्याचारों से बचने के लिए तिब्बत से भारत की ओर रुख किया। उन्होंने भारत के अरुणाचल प्रदेश में स्थित केंझिमाने पास को पार किया और वहां भारतीय सीमा रक्षकों द्वारा उनका स्वागत किया गया। 2 अप्रैल 1959 को भारतीय अधिकारियों ने उन्हें औपचारिक रूप से स्वागत किया और उन्हें तवांग मठ तक पहुँचाया, जहां से उनका भारतीय शरणार्थी के रूप में स्वागत किया गया।

उसी दिन, भारतीय सरकार ने यह घोषणा की कि दलाई लामा को राजनीतिक शरण दी जाएगी। इसके बाद, प. एन. मेनन (भारत के पूर्व कांसल जनरल) ने दलाई लामा का स्वागत किया और भारतीय सरकार की ओर से उनके साथ संपर्क किया।

भारत में शरण लेने के बाद, दलाई लामा ने 18 अप्रैल 1959 को तेजपुर, असम से अपना पहला बयान जारी किया। इस बयान में उन्होंने चीन की आलोचना की, खासकर उस समय चीन द्वारा उनके ल्हासा स्थित नॉरबुलिंका महल पर की गई गोलाबारी के संबंध में। उन्होंने यह भी कहा कि वह “अपनी स्वतंत्र इच्छा से” भारत आए थे, न कि किसी दबाव में। इसके साथ ही, उन्होंने भारतीय जनता और सरकार का आभार व्यक्त किया और उनकी “स्वाभाविक और उदार” मेहमाननवाजी की सराहना की।

नेहरू के लिए दलाई लामा को शरण देने का फैसला आसान नहीं था। उन्हें इस कदम पर भारी आलोचना का सामना करना पड़ा। कई लोगों ने इसे चीन के साथ भारत के रिश्तों को बिगाड़ने वाला कदम बताया। विशेषकर भारत के रक्षा मंत्री, वी.के. कृष्ण मेनन ने इस कदम पर आपत्ति जताई थी। भारतीय जनसंघ के नेता, दीनदयाल उपाध्याय ने भी इसे तिब्बत के स्वतंत्रता संघर्ष के खिलाफ बताया। चीन ने भी इस कदम का विरोध किया और भारत से दलाई लामा को वापस भेजने की मांग की।

प्रधानमंत्री नेहरू ने इस कदम का बचाव करते हुए कहा कि उन्होंने दलाई लामा को “मानवाधिकार और मानवता” के कारण शरण दी। उन्होंने भारतीय संसद में कहा कि यह संभवतः तिब्बत के हालात के कारण चीन सरकार के दृष्टिकोण को उत्तेजित कर सकता है, लेकिन भारत ने दलाई लामा को शरण देने का निर्णय “सिद्धांत और मानवता” के आधार पर लिया। इसके बाद, चीन ने भारत से दलाई लामा को वापस भेजने की मांग की, जो भारत-चीन रिश्तों में तनाव का कारण बना और यह भविष्य में 1962 के युद्ध में बदल गया।

दलाई लामा ने पहले 1956 में भारत का दौरा किया था, जब वह पैनचेन लामा के साथ भारत आए थे। इस दौरान उन्होंने नेहरू से तिब्बत की स्थिति पर चर्चा की थी। चीन द्वारा 1951 के तिब्बत स्वायत्तता समझौते से मुकरने के बाद, दलाई लामा और पैनचेन लामा ने भारत के प्रधानमंत्री से तिब्बत की समस्याओं के बारे में बात की थी। यह बातचीत चीन के प्रधानमंत्री झोउ एनलाई के साथ भी हुई थी, जिसमें नेहरू ने उन्हें आश्वस्त किया था कि तिब्बत को अपनी स्वायत्तता मिलनी चाहिए। इसी आश्वासन के बाद, दलाई लामा और पैनचेन लामा अपने घर लौट गए थे।

दलाई लामा ने 26 मार्च 1959 को नेहरू को एक टेलीग्राम भेजा था, जिसमें उन्होंने भारत से शरण की अपील की थी। इसके बाद नेहरू ने 3 अप्रैल को दलाई लामा को जवाब दिया और उनके स्वागत की व्यवस्था की। नेहरू ने यह भी कहा था कि सरकार ने यह निर्णय नहीं लिया था कि दलाई लामा को कहाँ ठहराया जाएगा। इसके बाद दलाई लामा को भारत में शरण दी गई और तेजपुर में उनका पहला बयान जारी किया गया।

भारत में शरण लेने के बाद, दलाई लामा ने कुछ समय मसूरी (उत्तराखंड) में बिताया और बाद में 1960 में धर्मशाला (मकलोडगंज) चले गए। यहाँ पर उन्होंने तिब्बती निर्वासित सरकार की स्थापना की और तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करना शुरू किया। मकलोडगंज आज तिब्बती संस्कृति और राजनीति का केंद्र बन चुका है।

भारत ने हमेशा तिब्बतियों को शरण दी और उनकी संस्कृति और धर्म को बचाने में मदद की। दलाई लामा की भारत में शरण ने न केवल तिब्बतियों को सुरक्षा दी, बल्कि यह भारत की विदेश नीति में भी बदलाव का प्रतीक बना, जो मानवाधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के लिए समर्थन का प्रतीक था।

भारत में दलाई लामा का शरण लेना न केवल एक ऐतिहासिक घटना थी, बल्कि यह भारत और चीन के रिश्तों के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। दलाई लामा का शरण लेना भारत के लिए एक साहसी कदम था, जिसने तिब्बत के संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उजागर किया। यह भारत के समर्थन का प्रतीक था और भारत के मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

Source: Indian Express