भारत में न्यायपालिका की आंतरिक जांच प्रक्रिया और दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ शुरू की गई जांच को समझने के लिए हमें इस प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से देखना होगा। यहाँ इस पूरे मामले को हिंदी में विस्तार से समझाया जा रहा है।
जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ जांच की शुरुआत
22 मार्च 2025 को भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना ने दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ एक अभूतपूर्व आंतरिक जांच शुरू की। यह कदम तब उठाया गया जब 14 मार्च को जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास में आग लगने की घटना के बाद वहाँ से नकदी के बंडल बरामद होने की बात सामने आई। इस जांच के लिए तीन सदस्यों की एक समिति बनाई गई है, जिसमें शामिल हैं:
1. पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शील नागू,
2. हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जी.एस. संधवालिया,
3. कर्नाटक हाई कोर्ट की जज जस्टिस अनु शिवरामन।
यह जांच न्यायपालिका की आंतरिक प्रक्रिया के तहत की जा रही है, जो संविधान में वर्णित महाभियोग की प्रक्रिया से अलग है। आइए, दोनों प्रक्रियाओं को विस्तार से समझते हैं।
भारतीय संविधान के तहत जज को हटाने की प्रक्रिया (महाभियोग)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124(4) में सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाने की प्रक्रिया और अनुच्छेद 218 में हाई कोर्ट के जज के लिए समान प्रावधानों का उल्लेख है। इसके तहत किसी जज को केवल दो आधारों पर हटाया जा सकता है:
1. सिद्ध कदाचार (Proved Misbehaviour) – यानी जज का ऐसा व्यवहार जो साबित हो जाए कि वह अपने पद के अनुरूप नहीं है।
2. अक्षमता” (Incapacity) – यानी जज का शारीरिक या मानसिक रूप से अपने कर्तव्यों को निभाने में असमर्थ होना।
महाभियोग की प्रक्रिया
1. प्रस्ताव: महाभियोग का प्रस्ताव संसद में पेश किया जाता है। इसके लिए लोकसभा में कम से कम 100 सांसदों या राज्यसभा में 50 सांसदों का समर्थन जरूरी है।
2. मतदान: प्रस्ताव को पास करने के लिए दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में मौजूद और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होती है। साथ ही, यह संख्या प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के 50% से अधिक होनी चाहिए।
3. राष्ट्रपति का आदेश: अगर संसद प्रस्ताव पास कर देती है, तो राष्ट्रपति जज को हटाने का आदेश जारी करते हैं।
4. प्रक्रिया का विफल होना: अगर संसद भंग हो जाती है या उसका कार्यकाल खत्म हो जाता है, तो महाभियोग की प्रक्रिया अपने आप रुक जाती है।
हालांकि, यह प्रक्रिया बहुत जटिल और कठिन है, और इसे लागू करने के लिए बहुत उच्च मानक चाहिए। इसलिए, छोटे-मोटे कदाचार के मामलों में यह प्रक्रिया शुरू नहीं की जाती। इसके लिए न्यायपालिका ने अपनी आंतरिक प्रक्रिया बनाई है।
न्यायपालिका की आंतरिक प्रक्रिया क्या है?
न्यायपालिका की आंतरिक प्रक्रिया (In-House Procedure) तब शुरू की जाती है जब किसी जज के खिलाफ ऐसा आरोप लगता है जो महाभियोग के स्तर तक नहीं पहुँचता, लेकिन फिर भी उसके आचरण को लेकर सवाल उठते हैं। इस प्रक्रिया की शुरुआत 1995 में तब हुई जब बॉम्बे हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एम. भट्टाचार्जी पर वित्तीय अनियमितता के आरोप लगे थे।
1995 का मामला और सुप्रीम कोर्ट का फैसला
– बॉम्बे बार एसोसिएशन ने जस्टिस भट्टाचार्जी से इस्तीफे की मांग की थी।
– सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी जिसमें बार एसोसिएशन को विरोध करने से रोकने की मांग थी।
– सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस के. रामास्वामी और बी.एल. हंसरिया ने कहा कि “सिद्ध कदाचार” और “खराब आचरण” के बीच एक अंतर है। महाभियोग के लिए बहुत गंभीर आधार चाहिए, लेकिन छोटे-मोटे कदाचार के लिए कोई प्रक्रिया नहीं थी।
– इस “कमी” को भरने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक आंतरिक प्रक्रिया बनाने का फैसला किया।
पांच सदस्यों की समिति
सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में एक पांच सदस्यों की समिति बनाई, जिसमें शामिल थे:
– सुप्रीम कोर्ट के जज: जस्टिस एस.सी. अग्रवाल, जस्टिस ए.एस. आनंद, जस्टिस एस.पी. भरूचा।
– हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश: जस्टिस पी.एस. मिश्रा और जस्टिस डी.पी. मोहपात्रा।
– इस समिति ने अक्टूबर 1997 में अपनी रिपोर्ट दी, जिसे दिसंबर 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार कर लिया।
आंतरिक प्रक्रिया के सात चरण (2014 में पुनरीक्षण)
2014 में मध्य प्रदेश की एक महिला जज ने हाई कोर्ट के एक जज पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आंतरिक प्रक्रिया को फिर से परिभाषित किया और इसे सात चरणों में समझाया। ये चरण इस प्रकार हैं:
1. शिकायत की शुरुआत: कोई भी व्यक्ति हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, CJI या राष्ट्रपति को शिकायत दे सकता है। हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश या राष्ट्रपति इसे CJI को भेजते हैं।
2. प्रारंभिक जाँच: CJI शिकायत की गंभीरता देखते हैं। अगर शिकायत गंभीर नहीं लगती, तो इसे खारिज कर दिया जाता है। अगर गंभीर लगती है, तो CJI संबंधित हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से प्रारंभिक रिपोर्ट माँगते हैं।
3. हाई कोर्ट की रिपोर्ट: हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश प्रारंभिक जाँच करता है और सिफारिश करता है कि क्या गहरी जाँच जरूरी है।
4. तीन सदस्यों की समिति: अगर गहरी जाँच की सिफारिश होती है, तो CJI तीन सदस्यों की समिति बनाते हैं (दो हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और एक हाई कोर्ट जज)।
5. जाँच प्रक्रिया: यह समिति अपनी प्रक्रिया खुद तय करती है, लेकिन प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करती है। इसमें आरोपी जज को अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाता है।
6. रिपोर्ट प्रस्तुत करना: समिति अपनी रिपोर्ट CJI को देती है। रिपोर्ट में दो बातें स्पष्ट होती हैं:
– क्या आरोपों में कोई सच्चाई है?
– अगर सच्चाई है, तो क्या यह इतना गंभीर है कि महाभियोग शुरू किया जाए?
7. CJI का फैसला:
– अगर आरोप सही हैं, लेकिन महाभियोग के लायक नहीं, तो CJI जज को सलाह दे सकते हैं और रिपोर्ट को रिकॉर्ड में रखते हैं।
– अगर आरोप गंभीर हैं, तो CJI जज को इस्तीफा देने या स्वैच्छिक रिटायरमेंट लेने की सलाह देते हैं।
– अगर जज मना करता है, तो CJI संबंधित हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को निर्देश देते हैं कि उस जज को कोई न्यायिक कार्य न दिया जाए।
जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले में क्या हो रहा है?
– CJI संजीव खन्ना ने जस्टिस वर्मा के खिलाफ तीन सदस्यों की समिति बनाई है।
– इस समिति को यह जाँच करनी है कि आग की घटना के बाद नकदी के बंडल मिलने के आरोपों में कितनी सच्चाई है और यह कितना गंभीर है।
– जस्टिस वर्मा को अपना पक्ष रखने का मौका मिलेगा।
– CJI ने दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश देवेंद्र कुमार उपाध्याय को पहले ही निर्देश दे दिया है कि जस्टिस वर्मा को कोई न्यायिक कार्य न सौंपा जाए।
– समिति की रिपोर्ट के आधार पर CJI अगला कदम तय करेंगे।
निष्कर्ष
न्यायपालिका की आंतरिक प्रक्रिया एक संतुलित तरीका है जिससे जजों के छोटे-मोटे कदाचार को बिना महाभियोग के संबोधित किया जा सके। यह प्रक्रिया पारदर्शिता और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है। जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले में यह देखना दिलचस्प होगा कि समिति की रिपोर्ट क्या कहती है और CJI इसका जवाब कैसे देते हैं।
Source: Indian Express