चीन द्वारा यारलुंग त्सांगपो नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध: परियोजना की रूपरेखा, भारत पर प्रभाव और चिंताएं

25 दिसंबर को चीन ने तिब्बत में यारलुंग त्सांगपो (जिसे ज़ांगबो भी कहा जाता है) नदी पर दुनिया की सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजना के निर्माण को मंजूरी दी। इस परियोजना की कुल क्षमता 60,000 मेगावाट (MW) होगी, जो वर्तमान में दुनिया की सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजना — यांग्त्से नदी पर स्थित थ्री गॉर्जेस डैम — की तीन गुना है।

यारलुंग त्सांगपो नदी तिब्बत से बहते हुए भारत के अरुणाचल प्रदेश में सियांग नदी के रूप में प्रवेश करती है। असम में इसमें दिबांग और लोहित जैसी सहायक नदियाँ मिलती हैं, और इसके बाद इसे ब्रह्मपुत्र नदी कहा जाता है। अंततः यह नदी बांग्लादेश होते हुए बंगाल की खाड़ी में मिलती है।

इस पैमाने की आधारभूत परियोजना लाखों लोगों के जीवन, आजीविका और क्षेत्रीय पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर सकती है।

परियोजना का स्थान और उद्देश्य

यह परियोजना चीन की 14वीं पंचवर्षीय योजना (2021–2025) में उल्लिखित है, और इसका निर्माण “ग्रेट बेंड” नामक क्षेत्र में किया जाएगा — जहां त्सांगपो नदी तिब्बत के मेडोग काउंटी में यू-टर्न लेकर अरुणाचल में प्रवेश करती है।

चीन का दावा है कि यह परियोजना उसे पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों से दूर जाकर 2060 तक नेट कार्बन न्यूट्रलिटी हासिल करने में मदद करेगी। नदी की तेज़ ढलान और उच्च प्रवाह दर इसे जलविद्युत उत्पादन के लिए उपयुक्त बनाती है।

भारत के लिए यह परियोजना कई स्तरों पर चिंताजनक है:

1. पानी की मात्रा पर प्रभाव:

यारलुंग त्सांगपो ब्रह्मपुत्र प्रणाली में पानी का एक बड़ा स्रोत है। यदि बांध पानी को रोकता है या प्रवाह को बदलता है, तो भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में जल आपूर्ति प्रभावित हो सकती है।

2. कृषि पर असर:

नदी द्वारा लाया गया गाद (सिल्ट) खेती के लिए अत्यंत आवश्यक है। बड़े बांधों के कारण यह सिल्ट नदी के बहाव से कट सकता है।

3. पारिस्थितिकी और भूकंपीय खतरे:

हिमालयी क्षेत्र बेहद संवेदनशील और भूकंप-प्रवण है। एक बड़ा जलाशय किसी संभावित भूकंपीय घटना को बढ़ा सकता है।

4. आपदा की आशंका:

वर्ष 2004 में तिब्बत में परेचू झील के निर्माण और उसके 2005 में फटने से सतलज में बाढ़ आ गई थी। यह घटना बताती है कि समय पर सूचना और समन्वय कितना जरूरी है। 

भारत और चीन के बीच कुछ समझौते और तंत्र मौजूद हैं:

2013 का व्यापक समझौता (Umbrella MoU):

यह अब भी लागू है, लेकिन इसके तहत कोई सक्रिय गतिविधि नहीं हो रही।

ब्रह्मपुत्र और सतलज पर दो अलग MoUs:

ब्रह्मपुत्र MoU हर पाँच साल में नवीनीकृत होता है, लेकिन 2023 में यह समाप्त हो गया और अभी नवीनीकरण प्रक्रिया जारी है।

सतलज पर समझौता परेचू घटना के बाद हुआ था, परंतु सालभर डेटा साझेदारी पर चीन की असहमति के कारण यह भी निष्क्रिय है।

इसके तहत वार्षिक बैठकें होती थीं, लेकिन पिछले वर्षों में इसमें रुकावटें आई हैं।

अंतरराष्ट्रीय कानून और भारत की रणनीतिक दिशा

1997 संयुक्त राष्ट्र जलप्रवाह सम्मेलन:

यह सिद्धांत कहता है कि ऊपरी तटीय देश (जैसे चीन) निचले देशों (जैसे भारत) को हानि नहीं पहुँचा सकते। हालांकि, न तो भारत और न ही चीन इस पर हस्ताक्षरकर्ता हैं, लेकिन भारत इसके बुनियादी सिद्धांतों का पालन करता है।

चीन का दावा

वह अपनी परियोजनाओं को “रन-ऑफ-द-रिवर” बताता है — यानि कि इनमें जलाशय निर्माण नहीं होता। किंतु विशेषज्ञ मानते हैं कि यह दावा अक्सर भ्रामक होता है।

भारत के पास क्या विकल्प हैं?

पूर्व राजदूत अशोक कंठा के अनुसार, भारत को अब:

1. खुलकर विरोध दर्ज कराना चाहिए।

सिर्फ बंद दरवाजों के पीछे संवाद काफी नहीं होगा। चीन की “नुकसान नहीं होगा” जैसी बातों का सार्वजनिक रूप से खंडन जरूरी है।

2. पारदर्शिता और परामर्श पर जोर देना चाहिए।

चीन को यह स्पष्ट रूप से बताना होगा कि यदि वह भारत की चिंताओं की उपेक्षा करता है, तो इससे द्विपक्षीय संबंधों पर गहरा असर पड़ेगा।

3. जल विषय को रणनीतिक प्राथमिकता में लाना चाहिए।

भारत-चीन रिश्तों में जल और पर्यावरणीय मुद्दों को केंद्रीय स्थान दिया जाना आवश्यक है।

Source: Indian Express