तमिलनाडु के राज्यपाल पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला — क्या है मामला और इसका मतलब क्या है?

8 अप्रैल, 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 विधेयकों (Bills) को मंजूरी देने से लगातार इनकार करना गैर-कानूनी और संविधान के खिलाफ है।

इस फैसले में जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन ने साफ कहा कि राज्यपाल का यह रवैया “सहकारी संघवाद” (Cooperative Federalism) के सिद्धांत के खिलाफ है। हाल के वर्षों में यह चिंता बढ़ी है कि विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपाल का पद राजनीति का अड्डा बनता जा रहा है।

संविधान के अनुसार विधेयक को मंजूरी देने की प्रक्रिया क्या है?

अनुच्छेद 200 के तहत, जब कोई विधेयक राज्य की विधानसभा में पारित होता है, तो वह राज्यपाल के पास मंजूरी के लिए भेजा जाता है (सिर्फ मनी बिल को छोड़कर, जिसे स्वतः मंजूरी मान लिया जाता है)।

राज्यपाल के पास तीन विकल्प होते हैं:

  1. विधेयक को मंजूरी देना।
  2. मंजूरी रोकना और विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए लौटाना।
  3. विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना, लेकिन यह सिर्फ तभी हो सकता है जब विधेयक उच्च न्यायालय की शक्तियों को कमजोर करता हो।

अगर विधानसभा विधेयक को दोबारा पास कर देती है — चाहे संशोधन के साथ या बिना — तो राज्यपाल को अनिवार्य रूप से उसे मंजूरी देनी होती है।

क्या राज्यपाल ‘पॉकेट वीटो’ का इस्तेमाल कर सकते हैं?

पॉकेट वीटो” का मतलब होता है किसी बिल को बिना कोई औपचारिक निर्णय लिए, बस लंबे समय तक रोककर रखना।

अब तक राज्यपाल अक्सर यह करते थे — न तो मंजूरी देते, न ही वापस भेजते। सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि यह रवैया संविधान के खिलाफ है

जस्टिस पारदीवाला ने अपने फैसले में कहा कि:

  • अनुच्छेद 200 में “shall” (करना ही होगा) शब्द का प्रयोग हुआ है।
  • साथ ही “as soon as possible” (जितना जल्दी हो सके) भी लिखा है।

इन दोनों शब्दों का मतलब यह है कि राज्यपाल को कोई निर्णय जल्द और अनिवार्य रूप से लेना होगा। वह विधेयक को अनिश्चितकाल तक रोके नहीं रख सकते।

राष्ट्रपति के पास विधेयक भेजने की क्या प्रक्रिया है?

कोर्ट ने यह भी साफ किया कि यदि कोई विधेयक विधानसभा में दोबारा पारित हो चुका है, तो अब उसे राष्ट्रपति के पास नहीं भेजा जा सकता, जब तक कि वह बिल मूल रूप से पूरी तरह अलग न हो।

राज्यपाल अपनी व्यक्तिगत असहमति या राजनीतिक कारणों के चलते किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते। ऐसा करना तभी सही होगा जब विधेयक लोकतांत्रिक मूल्यों को गंभीर खतरा पहुंचाता हो।

अब सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के लिए भी एक समय सीमा तय की है —

यदि राज्यपाल राष्ट्रपति के पास कोई विधेयक भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को तीन महीने के अंदर फैसला लेना होगा।
अगर कोई देरी होती है, तो वाजिब कारणों के साथ राज्य सरकार को सूचित करना ज़रूरी होगा।

राज्यपाल के लिए सुप्रीम कोर्ट ने क्या समयसीमा तय की है?

राज्यपाल अब विधेयकों को रोकने के लिए अनिश्चितकाल तक इंतज़ार नहीं कर सकते। कोर्ट ने कुछ स्पष्ट टाइमलाइन तय की हैं:

  1. अगर राज्यपाल कैबिनेट की सलाह के अनुसार विधेयक पर निर्णय लेना चाहते हैं, तो यह एक महीने के अंदर होना चाहिए।
  2. अगर वह कैबिनेट की सलाह के खिलाफ जाकर मंजूरी रोकना चाहते हैं, तो बिल को तीन महीने के अंदर वापस भेजना होगा, वह भी कारणों के साथ।
  3. अगर बिल को राष्ट्रपति के पास भेजना है (कैबिनेट की इच्छा के खिलाफ), तब भी यह फैसला तीन महीने में होना चाहिए।
  4. और अगर विधानसभा ने बिल दोबारा पास कर दिया है, तो राज्यपाल को एक महीने में मंजूरी देनी होगी।

कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर किसी खास कारण से इन समय सीमाओं से थोड़ा इधर-उधर होता है, तो उसे माफ किया जा सकता है — लेकिन कारण स्पष्ट और उचित होना चाहिए।

क्या राज्यपाल के फैसलों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हां — राज्यपाल के निर्णय न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के दायरे में आते हैं।
अगर राज्यपाल जनप्रतिनिधियों की इच्छा की अनदेखी करते हैं, तो अदालत उस पर सवाल उठा सकती है।

कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करते हुए यह फैसला सुनाया कि राज्यपाल द्वारा रोके गए 10 विधेयकों को अब मंजूरी मिल चुकी मानी जाएगी

जस्टिस पारदीवाला ने कहा कि यह विशेष कदम इसलिए उठाया गया क्योंकि राज्यपाल ने इससे पहले भी अदालतों के आदेशों की अनदेखी की थी, और बिना कारण बताए विधेयक लौटा दिए थे — जो कि पूर्व में दिए गए फैसलों के विरुद्ध है।

इस फैसले का क्या असर हो सकता है?

P.D.T. आचार्य (पूर्व लोकसभा महासचिव) ने कहा कि यह फैसला संघीय ढांचे और लोकतंत्र के लिए बड़ा समर्थन है। अब राज्य सरकारों को राज्यपाल की देरी के खिलाफ एक ठोस संवैधानिक रास्ता मिल गया है।

वरिष्ठ अधिवक्ता शादान फरसत ने कहा कि यह फैसला इसलिए भी खास है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार “कल्पित मंजूरी” (Deemed Assent) की बात कही है — यानी अगर राज्यपाल समयसीमा के अंदर फैसला नहीं लेते, तो माना जाएगा कि बिल पास हो गया।

उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि इसी तर्ज पर न्यायिक नियुक्तियों में केंद्र सरकार की देरी पर भी सुप्रीम कोर्ट ऐसा कदम उठा सकती है — ताकि कॉलेजियम की सिफारिशों को रोका न जा सके।

Source: The Hindu

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